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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र में कैलाश के सन्दर्भ में किया है । ऋषभदेव के पुत्र प्रथम चक्रवर्ती सम्राट भरत ने अष्टापद पर मनुष्य लोग वहाँ आवागमन करके आशातना न करें इसलिये लोहयंत्रमय आरक्षक पुरुष बनवाये। आज हम अपने को सभ्य और सुसंस्कृत मानते हैं, वैज्ञानिक क्षेत्र में प्रगतिशील समझते हैं । पर आज से हजारों वर्षों पहले का विज्ञान कितना विकसित था यह हमें साहित्य में वर्णित उल्लेखों से स्पष्ट हो जाता है । वनस्पति में जीव की अवधारणा, अणु और पुद्गल का स्वरूप और यन्त्रमय मानव का जैन साहित्य में वर्णन एक बहुत ही प्रामाणिक और महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है । आज से पचास-पचपन वर्ष पूर्व इस विवरण को काल्पनिक और अतिशयोक्ति से भरा समझा जाता था । लेकिन आज यन्त्रमय मानव रोबोट के निर्माण ने उस यथार्थ को जिसे कल्पना समझते थे उसकी वास्तविकता को प्रमाणित कर दिया है । सूर्य रश्मियों को पकड़कर गौतम स्वामी का कैलास शिखर के आरोहण का अर्थ भी अगर देखें तो यह स्पष्ट होता है कि कैलास के लौह यन्त्रमय मानव सूर्य की किरणों से उर्जा प्राप्त कर अपना निर्धारित कार्य करते थे जिसको आज की भाषा में सोलर एनर्जी कहते हैं । श्री दीपविजयजी कृत अष्टापद पूजा के अन्तर्गत जलपूजा में अष्टापद की अवस्थिति के विषय में लिखा जंबूना दक्षिण दरवाजेथी, वैताढ्य थी मध्यम भागे रे । नयरी अयोध्या भरतजी जाणो, कहे गणधर महाभाग रे ।धन. ।।८।। जंबूना उत्तर दरवाजेथी, वैताढ्य थी मध्यम भागे रे । अयोध्या ऐरावतनी जाणो, कहे गणधर महाभाग रे ।। धन. ॥९॥ बार योजन छ लांबी पहोली, नव योजन ने प्रमाण रे । नयरी अयोध्या नजीक अष्टापद, बत्रीस कोस ऊँचाण रे ॥ धन. ॥१०॥ जैन धर्म में सर्वोच्च स्थान तीर्थंकरों का है जिनकी प्रतिमाओं की परम्परा जैन आगमों के अनुसार शाश्वत है | आदि भगवान् ऋषभदेव के निर्वाण के बाद वहाँ स्तूप तथा सिंह निषधा पर्वत पर भरत चक्रवर्ती द्वारा बनाये गये जिनालय में दो, चार, आठ, दस के क्रम से कुल चौबीस प्रतिमाओं की स्थापना की गयी जिसका वर्णन सिद्धाणं, बुद्धाणं (सिद्धस्तव) सूत्र में मिलता है। चत्तारि अट्ठ दस दोय, वंदिया जिणवरा चउव्वीसं । परमट्ठनिट्ठिअट्ठा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ।।५।। इस प्रकार दक्षिण दिशा में चार, पश्चिम दिशा में आठ, उत्तर दिशा में दस और पूर्व दिशा में दो सब मिलाकर चौबीस जिन मूर्तियाँ हैं । गौतम स्वामी की अष्टापद तीर्थयात्रा के सन्दर्भ में महोपाध्याय श्री विनय सागरजी ने गौतम रास परिशीलन की भूमिका में लिखा है- गौतम स्वामी कि अष्टापद तीर्थयात्रा का सबसे प्राचीन प्रमाण सर्वमान्य आप्तव्याख्याकार जैनागम साहित्य के मूर्धन्य विद्वान् याकिनीमहत्तरासूनु आचार्य हरिभद्रसूरि ‘भव विरह' के उपदेश नामक ग्रन्थ की गाथा १४१ की स्वोपज्ञ टीका में वज्रस्वामी चरित्र के अन्तर्गत गौतम स्वामी कथानक में मिलता है । इसमें गौतम स्वामी के चरित्र की मुख्य घटनाओं में गागली प्रतिबोध, अष्टापद तीर्थ की यात्रा, चक्रवर्ती भरत कारित जिनचैत्य बिम्बों की स्तवना, वज्र स्वामी के जीव को प्रतिबोध और उन्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति, अष्टापद पर १५०० तापसों को प्रतिबोध, महावीर का निर्वाण और गौतम को केवलज्ञान की प्राप्ति एवं निर्वाण का वर्णन है । Adinath Rishabhdev and Ashtapad 36 1882
SR No.009853
Book TitleAshtapad Maha Tirth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size178 MB
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