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________________ की उच्चकोटि की महत्ता मानी गयी और इनका वर्णन किया गया। इन तीर्थ यात्राओं की कुछ प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार थीं। (१) ये यात्राएँ किसी विशेष पूजा पद्धति के अनुयायी सम्मिलित होकर करते थे । (२) इनकी यात्रा का लक्ष्य कोई प्रमुख तीर्थ स्थान रहता था। (३) इस यात्रा में संतों और मुनियों के समागम को प्रत्येक धर्म में महत्ता दी गयी। (४) इन संघों के यात्री मार्ग में धर्म प्रभावना का कार्य निरन्तर करते थे । दान और पुण्य का बड़ा महत्त्व समझा जाता था। (५) यात्रा के मार्ग में पड़ने वाले जीर्ण-शीर्ण मन्दिरों की व्यवस्था की जाती थी। निर्धन वर्ग को सहायता प्रदान करना एवं मार्ग में विशेष सुविधाओं की स्थापना करना अति पुण्य का कार्य समझा जाता था। (६) इस प्रकार की यात्राओं का व्यय एक व्यक्ति या कुछ व्यक्ति सम्मिलित होकर उठाते थे। (७) मार्ग में पड़ने वाले राज्यों के शासक भी संघों के यात्रियों की व्यवस्था करते थे तथा यात्री संघों द्वारा शासकों को भेट दी जाती थी। जिसके बदले ये शासक विभिन्न प्रकार की सुविधाएँ यात्रियों को उपलब्ध कराते थे। संतों का प्रयास रहता था कि शासक को धार्मिक सिद्धान्तों की ओर प्रेरित करें। इस प्रकार हम देखते हैं कि तीर्थ और तीर्थ यात्रा संघों का महत्त्व धार्मिक तीर्थो की देखभाल और पुनरुद्धार के लिये विभिन्न जातियों भाषा-भाषियों से सम्पर्क स्थापित करने के लिये, मानव जीवन के श्रेष्ठतम मूल्यों के प्रसार के लिये, देश के विभिन्न भागों की जानकारी एवं नजदीकी सम्बन्ध स्थापित करने के लिये, राजकीय संरक्षण के लिये तथा शासकों में धर्म प्रचार के लिये आवश्यक बना रहा । तीर्थङ्करों का जन्म स्वयं के कल्याण के लिये ही नहीं अपितु जगत् के कल्याण के लिये होता है । अतः उनके जीवन के विशिष्ट मंगल दिनों को कल्याणक दिन कहा जाता है। जैन परंपरा में तीर्थङ्करों के पंच कल्याणक रूप माने जाते है पंच महाकल्लाणा सव्वेसिं हवंति नियमेण । (पंचाशक हरिभद्र ४२४), जस्स कम्ममुदपण जीवो पंचमहाकल्लाणाणि पाविदूण तित्थ दुवालसंगं कुणदि तं तित्थयरणाम । धवला १३।५, १०१ । ३६६ ।६, गोम्मटसार, जीवकाण्ड, टीका ३८१।६ Shri Ashtapad Maha Tirth - ये पंचकल्याणक दिन निम्नलिखित हैं गर्भकल्याणक तीर्थकर जब भी माता के गर्भ में अवतरित होते हैं तब श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार माता १४ और दिगम्बर परम्परा के अनुसार १६ स्वप्न देखती है तथा देवता और मनुष्य मिलकर उनके गर्भावतरण का महोत्सव मनाते हैं । जन्मकल्याणक जैन मान्यतानुसार जब तीर्थङ्कर का जन्म होता है, तब स्वर्ग के देव और इन्द्र पृथ्वी पर आकर तीर्थङ्कर का जन्मकल्याणक महोत्सव मनाते हैं और मेरू पर्वत पर ले जाकर वह उनका जन्माभिषेक करते हैं। — दीक्षा कल्याणक • तीर्थंकर के दीक्षाकाल के उपस्थित होने के पूर्व लोकान्तिक देव उनसे प्रव्रज्या लेने की प्रार्थना करते हैं। वे एक वर्ष तक करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं का दान करते हैं। दीक्षा तिथि के दिन देवेन्द्र अपने देवमण्डल के साथ आकर उनका अभिनिष्क्रमण महोत्सव मनाते हैं। वे विशेष पालकी में आरूढ़ होकर वनखण्ड की ओर जाते हैं । जहाँ अपने वस्त्राभूषण का त्यागकर तथा पंचमुष्ठि लोच कर दीक्षित हो जाते हैं। नियम यह है कि तीर्थङ्कर स्वयं ही दीक्षित होता है किसी गुरू के समीप नहीं । — केवल्यकल्याणक तीर्थङ्कर जब अपनी साधना द्वारा कैवल्य ज्ञान प्राप्त करते हैं उस समय भी स्वर्ग से इन्द्र और देवमण्डल आकर कैवल्य महोत्सव मनाते हैं उस समय देवता तीर्थङ्कर की धर्म सभा के लिये समवसरण की रचना करते हैं। निर्वाणकल्याणक तीर्थङ्कर के परिनिर्वाण प्राप्त होने पर देव द्वारा उनका दाह संस्कार कर परिनिर्वाणोत्सव 183 Adinath Rishabhdev and Ashtapad -
SR No.009853
Book TitleAshtapad Maha Tirth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size178 MB
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