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________________ जैन धर्म एवं साहित्य में धर्मचक्र का विशेष महत्व हैं तीर्थंकरों की स्तुति में शक्रेन्द्र ने जो विशेषण और गुण सूचक वाक्य प्रयुक्त किये हैं उनमें धम्मवर चाउरंत चक्कवट्टीणं अर्थात् महावीरादि तीर्थंकर श्रेष्ठ धर्म को चारों ओर फैलाने में धर्मचक्र के प्रवर्त्तक धर्म चक्रवर्ती होते हैं। उनमें पहले अतिशय में धर्मचक्र का नाम आता है, अर्थात् तीर्थंकर चलते हैं तो उनके आगे-आगे आकाश में देवता धर्मचक्र चलाते रहते हैं । अतः धर्मचक्र तीर्थकरों का महान अतिशय है। अभिधान - चिंतामणी शब्दकोष के प्रथम खण्ड के ६१ वें श्लोक में धर्मचक्र प्रवर्तन किये जाने का उल्लेख किया गया है। प्राचीन समवायांग सूत्र में दस अतिशयों का वर्णन है, उसमें आकाशगत धर्मचक्र भी एक है । भगवान् विहार करते हैं तब आकाश में देदीप्यमान धर्मचक्र चलता है । प्राचीन स्तोत्रों में इसका बड़ा महत्व बतलाया है। उसका ध्यान करने वाले साधक सर्वत्र अपराजित होते हैं ― Shri Ashtapad Maha Tirth “जस्सवर धम्मचक्कं दिणयरंबिव न भासुरच्छायं नेएण पज्जलंतं गच्छइ पुरओ । जिणिंदस्स ॥ १९ ॥ ॐ नमो भगवओ महह महावीर वर्द्धमान सामिस्स जस्सवर धम्मचक्कं जलतं गच्छइ आयास पायालं. लोयाणं भूयाणं जूए वा रणे का रायंगणे वावारणे थंभणे मोहेण थंरणे स्तवसताणं अपराजिओ भवामि स्वाहा । धर्मचक्र का प्रवर्तन कब से चालु हुआ, इस सम्बन्ध में आचार्य हेमचन्द्र के त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र में महत्वपूर्ण उल्लेख मिलता है। इसके अनुसार भगवान् ऋषभदेव छद्मस्थ काल में अपने पुत्र महाराजा बाहुबली के प्रदेश में तक्षशिला वन में आये, उसकी सूचना वनरक्षक ने बाहुबली को दी तो उन्हें बड़ा हर्ष हुआ और वे भगवान् को वंदन करने के लिये जोरों से तैयारी करने लगे। इस तैयारी में संध्या हो जाने से दूसरे दिन प्रातःकाल वे अपने नगर से निकलकर जहाँ रात्रि में भगवान् ऋषभदेव ध्यानस्थ ठहरे थे वहाँ पहुँचे। पर लश्कर के साथ पहुँचने में देरी हो गयी और भगवान् ऋषभदेव तो अप्रतिबद्ध विहारी थे अतः प्रातः होते ही अन्यत्र विहार कर गए, फलतः बाहुबली उनके दर्शन नहीं कर सके । मन में बड़ा दुःख हुआ कि मुझे भगवान् के आगमन की सूचना मिलते ही आकर दर्शन कर लेना चाहिए था। अन्त में जहाँ भगवान् खड़े हुए थे वहाँ की जमीन पर भगवान् के पद चिन्ह बने हुए थे, उन्हीं का दर्शन वंदन करके संतोष करना पड़ा, पचिन्हों की रक्षा करने के लिए धर्मचक्र बनवाया गया, सुवर्ण और रत्नमयी हजार आरों वाला धर्मचक्र वहाँ स्थापित किया गया। बाहुबली ने धर्मचक्र और चरण चिन्हों की पूजा की इस तरह चरण चिन्हों की पूजा की परम्परा शुरू हुई और पहला धर्मचक्र ऋषभदेव के छद्मस्थ काल में बनवाकर प्रतिष्ठित किया गया । अष्टोत्तरी तीर्थमाला (अंचलगच्छीय महेन्द्रसूरी रचिता) प्राकृत भाषा की एक महत्वपूर्ण रचना है । १११ गाथाओं की इस रचना में जैन तीर्थों का वर्णन है। उनमें से ५१वीं गाथा में अष्टापद उज्जयन्त, गजारापद के बाद धर्मचक्र तीर्थ का उल्लेख है। गाथा ५६ से ५८ वें तक में धर्मचक्र तीर्थ की उत्पत्ति का विवरण इस प्रकार दिया हुआ है। तवाल सिलाए उसभो, वियाली आगम्म पडिम्म नुज्जणे । जा बाहुबली पमाए, एईता विहरिनु भयवं ।। ५६ ।। तोतेहियं सोकारइ जिण पय गणंमि रयणमय पीढ़ । तदुवरि जोयण माणं रयण विणिम्मिय दंडे ।। ५७ ।। तस्सोवरि रयणमय, जोयण परिमण्डल पवर चक्कं । तं धम्मचक्क तित्थ, भवनल तिहि पवर बोहियं ||४८ ॥ 175 a Adinath Rishabhdev and Ashtapad
SR No.009853
Book TitleAshtapad Maha Tirth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size178 MB
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