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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth और वे सूर्य के रूप हैं। आचार्य यास्क के अनुसार रश्मियों द्वारा समग्र संसार को व्याप्त करने के कारण ही सूर्य विष्णु नाम से अभिहित हुए हैं। ब्रह्म पुराण (१५८/२४) “यश्च सूर्यः स वै विष्णुः स भास्करः' । हमने प्रारम्भ में ही यह प्रमाणित किया है कि वेदों और पुराणों आदि ग्रन्थों में ऋषभदेव और सूर्य की समानता का उल्लेख मिलता है। जो विष्णु और सूर्य-ऋषभ और सूर्य दोनों की समानता की पुष्टि करता है। अर्हत् ऋषभदेव ने लोक और परलोक के आदर्श प्रस्तुत किये। गृहस्थधर्म और मुनिधर्म दोनों का स्वयं आचरण करते हुए राज्यावस्था में विश्व को सर्व कलाओं का प्रशिक्षण दिया तथा बाद में पुत्रों को राज्यभार सौंपकर अध्यात्मकला द्वारा स्व-पर कल्याण के लिये प्रव्रज्या ग्रहण कर अर्हत् बने। शायद यही कारण है कि श्रीमद्भागवत में उन्हें विष्णु भगवान् कहा है। महर्षिःतस्मिन्नैव विष्णुदत्तः भगवान परमर्षिभिः प्रसादितः नाभेः प्रिवचिकीर्षया तदवरोधाय ने मरुदेव्याधमान् दर्शयितुकामो वातरशनानाः श्रमणः नामृषीणामूर्ध्वमंथिनां शुक्लया तनुवावतार ।। - ५३।२० भागवत अर्थात् - हे परीक्षित ! उस यज्ञ में महर्षियों द्वारा इस प्रकार प्रसन्न किये जाने पर भगवान् महाराज विष्णु नाभि को प्रिय करने के लिये उनके अन्तःपुर में महारानी मरुदेवी के गर्भ से वातरशना (योगियों) श्रमणों और ऊर्ध्वगामी मुनियों का धर्म प्रकट करने के लिये शुद्ध सत्वमय शरीर से प्रकट हुए। श्रीमद्भागवतकार ने ही लिखा है कि यद्यपि ऋषभदेव परमानन्दस्वरूप थे, स्वयं भगवान् थे फिर भी उन्होंने गृहस्थाश्रम में नियमित आचरण किया। उनका यह आचरण मोक्षसंहिता के विपरीतवत् लगता है, किन्तु वैसा था नहीं। यथा भगवान् ऋषभसंज्ञ आत्मतन्त्रः स्वयं नित्यनिवृत्तानर्थपरम्परः केवलानन्दानुभवः ईश्वर एवं विपरीतवत् कारण्यारभ्यमानः कालेनानुरातं धर्ममाचरेणापंशिक्षयन्नतद्विदां सम उपशांतो मैत्रः कारुणिको धर्मार्थ यशः प्रजानन्दामृतावरोधेन गृहेषु लोक नियमयत्। __ - भागवत् ५।४।१४ अर्थात्- भगवान् ऋषभदेव यद्यपि परम स्वतन्त्र होने के कारण स्वयं सर्वदा ही सब प्रकार की अनर्थ परम्परा से रहित केवल आनन्दानुरूप स्वरूप और साक्षात् ईश्वर ही थे तो भी विपरीतवत् प्रतीत होने वाले कर्म करते हुए उन्होंने काल के अनुसार धर्म का आचरण करके उसका सत्त्व न जानने वालों को उसी की शिक्षा दी। साथ ही सम (मैत्री), शान्त (माध्यस्थ), सहृद (प्रमोद), और कारुणिक (कृपापरत्व) रहकर धर्म, अर्थ, यश, सन्तानरूप भोग सुख तथा मोक्ष सुख का अनुभव करते हुए गृहस्थाश्रम में लोगों को नियमित किया। ऋषभ का एक अर्थ धर्म भी है। ऋषभदेव साक्षात् धर्म ही थे। उन्होंने भागवत में कहा है- मेरा यह शरीर दुर्विभाव है, मेरे हृदय में सत्त्व का निवास है वहीं धर्म की स्थिति है। मैंने धर्म स्वरूप होकर अधर्म को पीछे धकेल दिया है अतएव मुझे आर्य लोग ऋषभ कहते हैं। इदं शरीरं मम दुर्विभाव्यं, सत्त्वं ही में हृदयं यत्र धर्मः। पुष्टे कृतो मे यदधर्म आराधतो ही मां ऋषभं प्राहुरार्याः ।। -भागवत ५।५।२२ एक अन्य स्थान पर परीक्षित ने कहा है- हे धर्मतत्त्व को जानने वाले ऋषभदेव ! आप धर्म का उपदेश कर रहे हैं। अवश्य ही आप वृषभरूप में स्वयं धर्म हैं। अधर्म करने वाले को जो नरकादि स्थान प्राप्त होते हैं, वे ही आपकी निन्दा करने वाले को मिलते हैं। यथाAdinath Rishabhdev and Ashtapad -26 166
SR No.009853
Book TitleAshtapad Maha Tirth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size178 MB
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