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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth “ओम अग्नि मीडे पुरोहित यज्ञस्य देवमृत्विज होतारं रत्नधातमम् अग्निः पूर्वभिऋषिभिरीड्यो नूतनं स्त सवेवो एह वक्षति" जिसका अर्थ है - मैं अग्रनेता ब्रह्मा की स्तुति करता हूँ जो अग्र हितैषी हैं जो सभी कार्यों के आदि में पूज्य माने जाते हैं, जो युक्ति साधना के आदर्श हैं, जो रत्नत्रय धारी हैं जो जन्म-मरण रूप संसार को हवि देने वाले हैं, जो धर्म संस्थापक हैं वह अग्रनेता पुराने और नये सभी ऋषियों द्वारा स्तुत्य है वह मुझे आत्मशक्ति प्रदान करें। श्री ए.एच. आहुवालिया के अनुसार- "They worshipped Agni knowing that it was the terrestrial representative of the mighty sun, the source of all power and life giver argumentor of all precious things" A.H.Ahuwalia. — इसी प्रकार सामवेद १-१ में लिखा है कि- (अग्न आ याहि वतिये गृणानो हव्यदातये नि होता सत्सि बर्हिर्षि) अर्थात् Agni comel come for the good of us all come be anxious to participate in all that we have to offer you. यह सभी श्लोक स्पष्ट करते हैं कि ऋषिगण भौतिक अग्नि का आहवान् नहीं कर रहे वरन् जो दिखाई नहीं देती ऐसी सर्वोच्च सिद्ध शक्ति का आह्वान कर रहे हैं 'उड़ीसा में जैन धर्म' किताब की भूमिका में नीलकण्ठ साहू ने लिखा है कि "जगन्नाथ जैन शब्द है और ऋषभनाथ के साथ इसकी समानता है । ऋषभनाथ का अर्थ है सूर्यनाथ या जगत् का जीवन रूपी पुष्प । ऋषभ यानि सूर्य होता है। यह प्राचीन बेबीलोन का आविष्कार है। प्रो. सई ने अपने Hibbert Lectures (1878) में स्पष्ट कहा है कि इसी सूर्य को वासन्त विषुवत में देखने से लोगों ने समझा कि हल जोतने का समय हो गया है। वे वृषभ अर्थात् बैलों से हल जोतते थे इसलिये कहा गया कि वृषभ का समय हो गया। इस दृष्टि से लोक भाषा में सूर्य का नाम ऋषभ या वृषभ हो गया। उससे पूर्व सूर्य जगत् का जीवन है यह धारण लोगों में बद्धमूल हो गयी थी। अतः ऋषभ की और सूर्य की उपासना का ऐक्य स्थापित हो गया। इस प्रकार नीलकण्ठ साहू ने उड़ीसा से बेबीलोन तक व्याप्तऋषभसंस्कृति को व्यक्त किया है। " आगे वे लिखते हैं कि “अति प्राचीन वैदिक मंत्र में भी कहा है सूर्य आत्मा जगत् स्तस्थुषश्च । (ऋग्वेद १-११५-१) सूर्य जगत् का आत्मा या जीवन है। बेबीलोन के निकट जो तत्कालीन प्राचीन मिट्टी राज्य था वहाँ से यह बात पीछे आयी थी । उस समय मिट्टानी राष्ट्र के राजा (ई० पू० चौदहवीं शताब्दी) दशरथ थे। उनकी बहन और पुत्री दोनों का विवाह मिस्त्र सम्राट के साथ हुआ था । उन्हीं के प्रभाव से प्रभावित होकर चतुर्थ आमान हेटय् या आकनेटन् ने आटेन (आत्मान् ) नाम से इस सूर्य धर्म का प्रचार किया था । और यह सूर्य या जगत् का आत्मा ही परम पुरुष या पुरुषोत्तम है ऐसा प्रचार कर एक प्रकार से धर्म में पागल होकर समस्त साम्राज्य को भी शर्त पर लगाने का इतिहास में प्रमाण है। बहुत सम्भव है कि कलिंग में द्रविड़ों के भीतर से ये जगन्नाथ प्रकट हुए हों । मिस्त्रीय पुरुषोत्तम तथा पुरी के पुरुषोत्तम ये दोनों इसी जैन धर्म के परिणाम हैं।" सराक जाति के प्रसंग में भी ऋषभदेव और अग्नि का सम्बन्ध परिलक्षित होता है। सराक जाति में प्रधानतः दो गोत्र पाए जाते हैं। आदिदेव एवं ऋषभदेव । हाँ कुछ अल्प संख्यक सराकों में अवश्य किसी और गोत्र का परिचय मिलता है पर वे नगण्य ही हैं। प्रधानता आदिदेव एवं ऋषभदेव की ही है आदिदेव ऋषभदेव का ही एक अन्य नाम है। — "स्मरणातीत काल से ही मनुष्य अपने जाति एवं गोत्र को जानता रहा है। मानवों का एक-एक समूह इतिहास के संधि स्थलों पर जिस युगपुरुष के माध्यम से परिचालित हुआ है, जिनके प्रवर्तित अनुशासन एवं रीत-नीतियों को माना है, जिनके निकट दीक्षित हुए हैं-वहीं उस समूह के गोत्रपिता कहलाए एवं इस Adinath Rishabhdev and Ashtapad 160 a
SR No.009853
Book TitleAshtapad Maha Tirth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size178 MB
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