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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth. * अष्टापद लुप्त होने के कारण : मुनिश्री कल्याण विजयजी ने अष्टापद लुप्त होने के कारणों की चर्चा निबन्धनिश्चय नामक ग्रन्थ में की है। उनके अनुसार अत्यन्त ठण्डी एवं हिमाच्छादित पर्वतमाला के कारण वहाँ जाना दुर्गम हो गया और बाद में लुप्त हो गया होगा। दूसरा कारण भरत ने रत्नमन्दिर बनाया और उसकी सुरक्षा के लिए यंत्र मानव की रचना की थी अर्थात् आम जनता के लिए वह तीर्थ दुर्गम बन गया केवल देवताओं के लिए ही यह तीर्थ सुगम था। तीसरे महत्त्वपूर्ण कारण की चर्चा करते हुए कहा है कि सगर चक्रवर्ती के पुत्रों ने अष्टापद के चारों तरफ खाई खोदी थी जिसके कारण वहाँ पहोंचना दुर्गम हो गया था। इस प्रकार भगवान् ऋषभदेव के निर्वाण के पश्चात् कुछ ही समय बाद इस तीर्थ की यात्रा करना दुर्गम हो गया था। अतः ऋषभदेव के समय की चर्चा करना आवश्यक है । * ऋषभदेव भगवान् का संक्षिप्त परिचय : शास्त्रों में प्राप्त जीवन चरित्र के आधार पर प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान् का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है। पिता का नाम नाभिराजा, माता का नाम मरुदेवी माता था । परमात्मा का लांछन ऋषभ था। जन्म अयोध्या नगरी में हुआ था। देश कोशल था । परमात्मा के यक्ष का नाम गोमुख एवं यक्षी का नाम चक्केश्वरी है । शरीर की ऊँचाई ५०० धनुष्य की मानी जाती है । भव संख्या १३ हैं । परमात्मा का जन्मदिन फाल्गुन वदी ८ मी है। उनकी कुमारावस्था २० लाख पूर्व की एवं राज्यावस्था ६३ लाख पूर्व की थी उनकी वो पत्नीयाँ सुमंगला एवं सुनंदा थीं परमात्मा का छद्मस्थ काल १००० वर्ष का, कुल दीक्षा पर्याय १ लाख पूर्व का था केवलज्ञान अयोध्या नगरी में हुआ था और निर्वाण भूमि अष्टापद पर्वत थी । पिता लांछन देश - यक्ष शरीर की ऊँचाई जन्मदिन - कुमारावस्था पत्नी - छद्मस्थकाल कुल दीक्षा पर्याय आयुष्य - - - नाभिराजा ऋषभ कोशल गोमुख ५०० धनुष्य फाल्गुन कृष्ण ८ मी २० लाख पूर्व सुमंगला एवं सुनंदा १००० वर्ष १ लाख पूर्व ८४ लाख पूर्व माता जन्म यक्षी - - मरुदेवी अयोध्या चक्केश्वरी राज्यावस्था ६३ लाख पूर्व — केवलज्ञान अयोध्या निर्वाणभूमि - अष्टापद पर्वत ऋषभदेव भगवान् का समय तृतीय आरा का अन्तभाग माना जाता है। जैन धर्म के अनुसार वश कोडाकोड़ी सागरोपम की एक अवसर्पिणी तथा उतने ही सागरोपम की एक उत्सर्पिणी होती है। इनमें प्रत्येक के छह छह भेद हैं जिसमें वस्तुओं की शक्ति क्रम से घटती जाती है उसे अवसर्पिणी काल और जिसमें बढ़ती जाती हैं उसे उत्सर्पिणी काल कहते हैं। इनका अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी नाम सार्थक है। (१) सुष्मा- सुष्मा, (२) सुष्मा, (३) सुष्मा - दुष्मा, (४) दुष्मा - सुष्मा, (५) दुष्मा और (६) दुष्मा - दुष्मा Period of Adinath 8 134 a
SR No.009853
Book TitleAshtapad Maha Tirth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size178 MB
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