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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth - प्रभु ऋषभदेव के निर्वाण को सुनकर जूते पहने बगर तुरन्त ही भरत चक्रवर्ती अष्टापद पर्वत पर गये थे। अतः अष्टापदजी अयोध्या से काफी नजदीक है | भरत चक्रवर्ती की ५०० धनुष की काया थी अतः उनके लिए यह सरल था । अब मुख्य बात अयोध्या का स्थान तय करना है । सामान्य रूप में आज फैजाबाद (उ.प्र.) के पास अयोध्या है किन्तु वास्तव में नाम साम्य है । हम भ्रम में पड़ कर इस अयोध्या के आसपास अष्टापदजी को तलाशते हैं एवं उसका पता न लगने पर उलझन में पड़ जाते हैं । किन्तु वास्तव में नाम साम्य के कारण यह उलझन खड़ी हुई है । भारत में जोधपुर, जयपुर, लींबडी आदि ग्राम कई हैं । इसी प्रकार जावाद्वीप में भरूच, सूरत, अयोध्या आदि नाम वाले कई शहर हैं । इससे भ्रम उत्पन्न होता है । किन्तु जोधपुर, भरूच आदि स्थान तो अपने स्थान पर ही हैं । इसी प्रकार अयोध्या भी अपने स्थान पर ही है। विनिता नगरी के पास अष्टापदजी हैं । विश्व रचना प्रबन्ध के पृष्ठ क्र. ११० में ५० त्रिपुटी म.सा.ने लिखा है- आगमशास्त्रों में स्पष्ट बताय गया है कि अष्टापदजी दक्षिण भारतार्ध के मध्य केन्द्र में वैताढ्य से दक्षिण में ११४ योजन ११ कला तथा लवण सागर से उत्तर में ११४ योजन ११ कला (यहाँ १ योजन = ३६०० मील तथा १ कला = १८९ मील ४ फलाँग) पर है । उस स्थान पर शाश्वत स्वस्तिक है । ऋषभदेव प्रभु के समय में इन्द्र महाराजा ने कुबेरदेव द्वारा ९ योजन चौड़ी १२ योजन लम्बी अयोध्या का निर्माण कराया था । इसलिए अयोध्या दक्षिण भरतक्षेत्र के ठीक मध्य भाग जहाँ से उत्तर में वैताढ्य पर्वत ११४ योजन ११ कला = ४,१२,५८३ मील तथा दक्षिण में लवण सागर भी ११४ योजन ११ कला = ४,१२,५८३ मील दूर पुनः कविराज श्री दीप विजयजी महाराज भी श्री अष्टापदजी पूजा में पहले दोहे की ११वीं चौपाई में बतलाते हैं कि... लगभग एक लाख उपर ८५ हजार कोस रे मन बसीया सिद्ध गिरी से है दूर रे, अष्टापद जयकार रे गुण रसीया ॥११॥ बत्तीस कोस का पर्वत ऊँचा ८ चौके बत्तीस योजन योजन अंतर से किए सीडी आठ नरेश ने ।।३।। जम्बूद्वीप दक्षिण दरवाजे से बैताढ्य के मध्यभाग रे । नगरी अयोध्या भरतकी जानो कहे गुणधर महाभाग रे ।।८।। यह बात सुनी गई है कि- "मूल अयोध्या को दूर समझ कर पूर्व ऋषि ने स्थापना कि । इससे इस बात की पुष्टि होती है कि वर्तमान अयोध्या मूल अयोध्या नहीं हैं । इसका यह अर्थ न लेना चाहिए कि अन्य तीर्थ भी (मूल न होकर) स्थापित तीर्थ हैं । यहाँ तीर्थ का नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव ये चार निरपेक्ष विचार किया गया है । इस प्रकार अष्टापदजी महातीर्थ के स्थान का विचार किया गया । Where is Ashtapad? 36 124
SR No.009853
Book TitleAshtapad Maha Tirth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size178 MB
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