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________________ बेनज़ीर हो ।' भवन-निर्माण में अन्दाजन् खर्च हो सकनेवाली धनराशि भी शिल्पीको दे दी गई। इतनी दौलत अपने क़ब्ज़े में देखकर शिल्पीकी नीयत बिगड़ गई। उसने सोचा क्यों न घटिया और नकली सामग्रीसे हो भवन बना हूँ। भवन तैयार हो गया। महाराज बहुत खुश हुए। भवन उद्घाटनका बड़ा उत्सव मनाया गया। समारोहमें महाराजने ऐलान किया-'आज मेरी एक बड़ी पुरानी अभिलाषा पूर्ण हुई है । राजशिल्पीकी योग्यता और राज्यभक्तिको मैं पुरस्कृत करना चाहता हूँ। पुरस्कार तैयार है। मैं राज्यको इस सबसे खूबसूरत इमारतको ही राज्य शिल्पीको इनाममें देता हूँ।' हमारे ही छल क्या हमें जीवन में इसी तरह नहीं छला करते ? -राजगोपालाचारी जैण्टिलमैन ! जो आदमी समाजसे जितना ले अगर उतना ही उसे लौटा दे तो वह एक मामूली भद्र आदमी है। जो समाजसे जितना ले उससे कहीं ज्यादा उसे लौटा दे तो वह एक विशिष्ट भद्र आदमी है। और जो अपनी सारी ज़िन्दगी समाजकी सेवामें अर्पित कर दे और बदलेमें समाजसे कुछ भी लेनेकी इच्छा न रक्खे वह एक गैर-मामूली भद्र पुरुप है। मगर आजका भद्र पुरुष तो समाजको सिर्फ़ लूटने-खसोटनेकी ही कोशिश करता रहता है । देनेके बारेमें भूलकर भी नहीं सोचता ! -जार्ज बर्नार्ड शा सन्त-विनोद ८४
SR No.009848
Book TitleSant Vinod
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarayan Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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