SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सावधान नारायण बचपन से ही विरक्त-सा रहता । ज्ञान, ध्यान, तपमें उसका समय बीतता । माँ पुत्र वधूका मुँह देखनेके लिए उतावली थी । वह योग भी आगया । बारह वर्षका किशोर नारायण बरातियों सहित धूमधाम और गाजे-बाजे के साथ विवाह मंडप में पहुँचा । मंगलाष्टक शुरू हुए । ब्राह्मणोंने कहा - 'शुभ मङ्गल, सावधान !" नारायणने मन-ही-मन इसका अर्थ लगाया - संसारकी दुखदायिनी बेड़ी तुम्हारे पैरो में पड़ने जा रही है, इसलिए सावधान ! नारायण तत्काल उठकर भाग निकला । वही नारायण वर्षोकी कठोर तपस्या के बल से 'रामदास' और फिर 'समर्थ' बन गया | अहंकार सामनगढ़ का किला बन रहा था । श्री शिवाजी महाराज उसका निरीक्षण करने आये । वहाँ बहुत से मज़दूरोंको काम करते देखकर उन्हें यह अहंकार भाव हुआ कि 'मेरी बदौलत इतने लोगोंकी रोजी चलती है ।' सद्गुरु समर्थ इस बात को जान गये । वे वहाँ आ पहुँचे । 'वाह, वाह, शिववा ! इस स्थानका भाग्योदय और इतने जीवोंका पालन तुम्हारे ही कारण हो रहा है ।' सद्गुरुके श्रीमुख से यह सुनकर श्री शिवाजी महाराजको धन्यता प्रतीत हुई 1 बोले- 'यह सब आपके ही आशीर्वादका फल है ।' बने हुए मार्ग में एक बड़ी शिला पड़ी देख कर सद्गुरूने पूछा - 'यह शिला यहाँ बीचमें क्यों पड़ी है ?' उत्तर मिला - 'रास्ता बन जानेपर इसे तुड़वा डाला जायेगा ।' सन्त-विनोद ८४
SR No.009848
Book TitleSant Vinod
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarayan Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy