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________________ दरवाज़ेपर पहुँचे तो द्वारपालोंने उन्हें वहीं रोक दिया। तीन दिन तक बाहर खड़े हुए धूप-शीत सहन करते रहे, किसीने बैठने तक को न कहा । चौथे दिन उन्हें छाया में बिठा दिया गया । वे पूर्ववत् यहाँ भी आत्मचिन्तन करते रहे । बाद में उन्हें अत्यन्त सम्मानपूर्वक प्रमदावन में पहुँचा दिया गया । वहाँ परम सुन्दरी युवतियोंने उन्हें दिव्य भोजन कराया और उनके सामने हँसती-खेलती-नाचती गाती रहीं । रातको सोनेके लिए आलीशान पलंग विछा दिया गया। वे ध्यान करते-करते कुछ देर के लिए सो गये, फिर उठकर ध्यानमग्न हो गये । युवतियाँ उनके ध्यानके समय भी तरह-तरह की विनोद लीलाएँ करती रहीं मगर वे लवलेश विचलित नहीं हुए । अगले दिन महाराज जनकने उनकी बड़ी आव-भगत की । बातचीत हुई । अन्तमें राजा जनक बोले- 'आफ दुःख-सुख, मान-अपमान, राग-रंग आदिसे पूर्ण विरक्त परमज्ञानी महात्मा हैं। बस इतनी ही कमी है कि आप अपने में कमी मानते है ।' इस बोधसे उन्हें पूर्ण आत्म-साक्षात्कार हो गया । मध्यम मार्ग सत्य की खोज में गौतम भरी जवानी में राज्य वैभव, रूपराशि यशोधरा और चाँदकेसे टुकड़े राहुलको छोड़कर घरसे निकल पड़े। वे रोग, बुढ़ापा और मोतपर विजय पाना चाहते थे । उन्हें दुःखका कारण जानकर शाश्वत आनन्द पाना था । एक वृक्षके नीचे बैठकर तपस्या करने लगे । एक रोज़ नज़दीक से ही कुछ गानेवालियाँ गाती हुई निकली जा रही थीं । उनके गाने का भाव था - ' - ' अपने सितारके तारोंको ढीला मत छोड़, और न इतना खींच कि वे टूट जायँ !' ८० सन्त-विनोद
SR No.009848
Book TitleSant Vinod
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarayan Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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