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________________ मान-दान एक बार एक दिग्विजयी विद्वान् भारतके भिन्न-भिन्न नगरोंमें अनेकों पण्डितोंको परास्त करता काशीमें आया। उस समय काशीमें एक महात्मा सबसे बड़े विद्वान् समझे जाते थे। उनके वहाँ हजारों शिष्य थे। दिग्विजयीने उनके पास जाकर कहा कि यदि आप मुझे पराजय-पत्र लिख कर दे दें तो अनायास ही मैं महान् कीर्तिमान् बन सकता हूँ। महात्माजी ने बिना किसी प्रकारको आपत्ति किये उसे पराजय-पत्र दे दिया। तब वह अपनी विजय घोषित करता हआ बाजे-गाजेके साथ काशीके राजमार्गसे निकला । इसी समय उसे उन महात्माजीके कुछ शिष्य मिले। उन्होंने सारे समाचार जानकर उसे शास्त्रार्थके लिए आमन्त्रित किया और थोड़ी ही देरमें एक शिष्यने उसे परास्त कर दिया। इससे उसका बड़ा तिरस्कार हुआ और उसे वहीं अपनी सवारी छोड़नी पड़ी। जब महात्माजीको ज्ञात हुआ, तो खेद प्रकट करते हुए यह कह कर कि 'इस प्रकारके वेदान्तश्रवणसे क्या लाभ है ? आजन्म मौन धारण कर लिया। -श्री उड़िया बाबा महान् कौन ? ग्रीस देशमें डायोजिनीज नामक एक महान् सन्त रहता था। सिक न्दर उसकी शोहरत सुनकर उससे मिलने गया। सन्त किसी जंगल में अपनी मिट्टीको नाँदमें नंगधडंग बैठा हुआ धूप खा रहा था । सिकन्दरने कुछ देर स्वागतकी प्रतीक्षा की, आखिरश चिढ़करबोला-'देखो ! मैं सिकन्दर महान् हूँ।' 'देखो ! मैं डायोजिनीज़ महान् हूँ' सन्तने वीरतापूर्वक जवाब दिया । सन्त-विनोद
SR No.009848
Book TitleSant Vinod
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarayan Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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