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________________ है ( पृ० १०९ )। पुत्र कार्तिकेय-द्वारा बिल्लीके शरीरपर की हुई लकीरका माता पार्वतीके गालपर उभर आना भी सर्वव्यापी जगदम्बाकी अनन्त सहानुभूतिका ही द्योतक है ( पृ० २४ )। जो बिल्लीका बदन है वही माताका गाल है; जो वृक्षकी छाल है वही अपनी चमड़ी है; जिस भगवान्के अभिषेकके लिए त्रिवेणी-जल सुरक्षित रखा है वह भगवान् ही प्याससे तड़पता हुआ गर्दभ है; भूखा कुत्ता और शूद्र ही स्वयं साई बाबा है ( पृ० १०२ )। ऐसी समतायुक्त दृष्टि-द्वारा ही सहानुभूति विकसित होती है, प्रेम प्रकट होता है और उसकी मस्ती रोम-रोममें व्याप्त हो जाती है। और तब तो आत्मानन्दके 'घीके लोटे' के सामने देह-सुखका 'छाछका लोटा' तुच्छ लगने लगता है ( पृ० २० ) । हाथ फैलाकर प्रभुसे भिक्षा माँगता हुआ सम्राट् भी तब एक भिखारीको भी अपने जैसा भिखारी ही प्रतीत होता है ( पृ० १२ ) । यह समता तो ठीक ही है, परन्तु साधुसे तो एक और दिव्यतर समताकी अपेक्षा रखी जाती है-उसके लिए 'मिला तो खा लिया, न मिला तो सन्तोष कर लिया' इतना ही काफ़ी नहीं है, बल्कि यह कि 'मिला तो बाँटकर खाया, न मिला तो उसे तपस्याका अवसर बना दिया' (पृ० ११३ )। पर ऐसी शुद्ध बुद्धि आवे कैसे ? भीष्म-जैसी हस्तीकी भी बुद्धिकी शुद्धि तब हुई जब दुर्योधनके अन्नसे बना हुआ तमाम दूषित रक्त अर्जुनके बाणों द्वारा निकल गया ( पृष्ट ७८ ) । गुबरीला जबतक अपने गलेमे ठुसी हुई मलकी धुंडीको उगल नहीं देता तबतक उसे फूलोंकी खुशबू आ कैसे सकती है ? ( पृ० २२)। सत्संगकी पवित्रताके संस्पर्शसे अशुद्धता और क्षुद्रताके दूर हो जानेपर मनुष्यको प्रकाश और विशालता प्राप्त होती है। तब वह प्रभुका बनता है, प्रभुमय बनता है और उसका संगीत प्रभुके लिए प्रयोजित होता है जिसकी बदौलत हरिदासोंके गलोंमें ऐसा अनुपम माधुर्य प्रकट होता है जो बादशाहोंके लिए गानेवाले तानसेनोंको कभी नसीब नहीं हो सकता ( पृ० १२ )।
SR No.009848
Book TitleSant Vinod
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarayan Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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