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________________ एक फ़रिश्ता स्वर्ग और नरकके बीच खड़ा है। वह लोगोंको कर्मानुसार स्वर्ग या नरक भेज रहा है। जब हाजी मुहम्मद सामने आये तो उसने पूछा 'तुमने क्या शभ कर्म किये हैं ?' 'मैंने साठ बार हज किया है।' 'सच है; मगर नाम पूछे जानेपर तुम गर्वसे 'मैं हाजी मुहम्मद हूँ' कहते रहे हो। इस गर्वके कारण तुम्हारा हज करनेका पुण्य नष्ट होगया। और कोई अच्छा काम किया हो तो बताओ।' 'मैं साठ सालसे पाँचों वक़्तकी नमाज़ पढ़ता रहा हूँ।' 'तुम्हारा वह पुण्य भी नष्ट हो गया। एक दिन बाहरके धर्मजिज्ञासु तुम्हारे पास आये थे। तुमने उन्हें दिखानेकी ग़रज़से उस दिन और दिनोंसे ज्यादा देर तक नमाज़ पढ़ी थी। इस दिखावेके भावकी वजहसे तुम्हारी वह साठ बरसकी तपस्या नष्ट हो गई।' इसके बाद हाजीजीकी आँख खुल गई। उन्होंने ग़रूर और नुमाइशसे हमेशाके लिए तौबा कर ली। सेवक हज़रत इब्राहीम बलखके बादशाह थे । उन्होंने एक गुलाम खरीदा । अपनी स्वाभाविक उदारतासे उन्होंने गुलामसे पूछा 'तेरा नाम क्या है ? 'जिस नामसे आप मुझे पुकारें ।' 'तू क्या खायेगा ?' 'जो आप खिलायें ।' 'तुझे कपड़े कैसे पसन्द हैं ?' 'जो आप पहिना दें।' ११४ सन्त-विनोद
SR No.009848
Book TitleSant Vinod
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarayan Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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