SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ देव और छोटी बहिन मुक्ताबाईके साथ आलन्दीसे चल कर पैठण आये। उन्हे शास्त्रज्ञ ब्राह्मणोंसे शुद्धिपत्र लेना था। एक दुष्टने उन्हें छेड़ा-'इस भैंसेका नाम भी ज्ञानदेव है ?' 'हाँ, है तो। भैंसे और हममे अन्तर क्या है ? नाम और रूप तो कल्पित हैं। आत्मतत्त्व एक ही है। भेदको कल्पना ही अज्ञान है ।' ज्ञानदेव बोले। तब उस दुष्टने भैंसेकी पीठपर चाबुक मारने शुरू कर दिये। चाबुक तो पड़ रहे थे भैंसेपर, पर मारके निशान उभर कर आ रहे थे ज्ञानेश्वरकी पीठपर ! यह देख वह दुष्ट आदमी ज्ञानेश्वरके चरणों में गिर कर क्षमा माँगने लगा-'मैं अज्ञानी हूँ, मुझे क्षमा करें।' 'तुम भी ज्ञानदेव हो क्षमा कौन किसे करेगा ? किसीने किसीका अपराध किया हो तो क्षमाकी बात आवे । सबमें एक ही प्रभु व्यापक हैं।' ज्ञानेश्वर महाराजकी एकात्म भावना अखंड थी। सबमें भगवान् महाराष्ट्रके कुछ सन्त त्रिवेणीसे काँवरों में गंगाजल लिये श्रीरामेश्वरकी यात्रा कर रहे थे। रास्तेमे देखा कि एक गधा रेतीले मैदान में पड़ा हुआ सख्त गर्मीके मारे प्यासा तड़प रहा था। साधुओंको उसपर दया आई। पर उपाय क्या था ? आस-पास दूरतक कोई जलाशय न था जहाँसे पानी लाकर उसे पिलाते । गंगाजल तो रामेश्वरमें भगवान् शंकरके अभिषेकके लिए था। ६४ सन्त-विनोद
SR No.009848
Book TitleSant Vinod
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarayan Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy