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________________ अध्याय -3 व्यवहार से आत्मा पुद्गल कर्मों का कर्ता और भोक्ता है - ववहारस्स दु आदा पोंग्गलकम्मं करेदि णेयविह। तं चेव य वेदयदे पोंग्गलकम्मं अणेयविह। (3-16-84) व्यवहार नय का मत है कि आत्मा अनेक प्रकार के पुद्गल कर्मों को करता है और उन्हीं अनेक प्रकार के पुद्गल कर्मों को भोगता है। It is only from the empirical point of view (vyavahāra naya) that the Self is the creator of various kinds of karmic matter, and then enjoys the fruits thereof. व्यवहार की मान्यता में दोष - जदि पॉग्गलकम्ममिणं कुव्वदि तं चेव वेदयदि आदा। दोकिरियावादिरित्तो पसज्जदे सो जिणावमदं॥ (3-17-85) यदि आत्मा इस पुद्गल कर्म को करता है और उसी को भोगता है तो दो क्रियाओं से अभिन्न होने का प्रसंग आता है। ऐसा मानना जिनेन्द्रदेव के मत के विपरीत है। विशेष - क्रिया वस्तुतः परिणाम है और परिणाम क्रिया के कर्ता परिणामी से अभिन्न होता है। जीव जिस प्रकार अपने परिणाम को करता है और उसी को भोगता है उसी प्रकार यदि वह पुद्गलकर्म को करे और उसी को भोगे तो जीव अपनी और पुद्गल की – दोनों की - क्रियाओं से अभिन्न हो जाएगा। दो द्रव्यों की क्रिया एक द्रव्य करता है, ऐसा मानना जिनेन्द्रदेव के सिद्धान्त के विरुद्ध है। If the Self creates the karmic matter and then enjoys the consequences thereof, it will lead to the hypothesis of a single 42
SR No.009847
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorVijay K Jain
PublisherVikalp
Publication Year2012
Total Pages226
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size2 MB
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