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________________ अध्याय - 10 अपेक्षा- भेद से आत्मा कर्ता और अकर्ता है - अहवा मण्णसि मज्झं अप्पा अप्पाणमप्पणो कुणदि । एसो मिच्छसहावो तुम्हं एवं भणंतस्स ॥ अप्पा णिच्चासंखेज्जपदेसो देसिदो दु समयम्हि । ण वि सो सक्कदि तत्तो हीणो अहियो व कादुं जे ॥ जीवस्स जीवरूवं वित्थरदो जाण लोगमित्तं हि । तत्तो सो किं हीणो अहियो य कदं भणसि दव्वं ॥ (10-34-341) 162 (10-35-342) (10-36-343) अह जाणगो दु भावो णाणसहावेण अत्थि दे दि मदं । तम्हा ण वि अप्पा अप्पयं तु समयप्पणो कुणदि ॥ (10-37-344) अथवा (कर्तृत्व का पक्ष सिद्ध करने के लिए) ऐसा मानो कि मेरा आत्मा अपने द्रव्यरूप आत्मा को करता है। ऐसा कहने वाले तेरा यह मिथ्यात्व भाव है, क्योंकि परमागम में आत्मा को नित्य और असंख्यात प्रदेशी कहा गया है। आत्मा उससे हीन या अधिक नहीं किया जा सकता । विस्तार की अपेक्षा जीव का जीवरूप निश्चय से लोकमात्र जानो। आत्मा उससे क्या हीन अथवा अधिक होता है जो तू कहता है कि आत्मा ने द्रव्यरूप आत्मा को किया; अथवा अगर तेरा ऐसा मत है कि ज्ञायक भाव तो ज्ञानस्वभाव से स्थित है तो इससे भी आत्मा स्वयं अपने आत्मा को नहीं करता (यह सिद्ध होता है)।
SR No.009847
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorVijay K Jain
PublisherVikalp
Publication Year2012
Total Pages226
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size2 MB
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