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________________ अध्याय -8 छिंददि भिंददि य तहा तालीतलकयलिवंसपिंडीओ। सच्चित्ताचित्ताणं करेदि दव्वाणमुवघाद। (8-7-243) उवघादं कुव्वंतस्स तस्स णाणाविहेहिं करणेहिं। णिच्छयदो चिंतेज्ज दु किं पच्चयगो ण रयबंधो॥ (8-8-244) जो सो दु णेहभावो तम्हि णरे तेण तस्स रयबंधो। णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्टाहि सेसाहिं॥ (8-9-245) एवं सम्मादिट्ठी वट्टतो बहुविहेसु जोगेसु। अकरंतो उवओगे रागादी ण लिप्पदि रयेण॥ (8-10-246) जिस प्रकार पुनः वही मनुष्य समस्त तेल के दूर किये जाने पर बहुत धूल वाले स्थान में शस्त्रों से व्यायाम करता है तथा ताड़, तमाल, कदली और बाँस के समूह को छेदता और भेदता है, सचित्त और अचित्त द्रव्यों का उपघात करता है। नाना प्रकार के करणों से उपघात करते हुए उसके किस कारण से धूलि का बन्ध नहीं होता, निश्चय से यह विचार करो। उस मनुष्य के शरीर पर वह जो तेल की चिकनाई थी, उसके कारण उसके धूलि का बन्ध होता था, काय की शेष चष्टाओं से धूलि-बन्ध नहीं होता, यह निश्चयपूर्वक जानो। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव नाना प्रकार के योगों में वर्तन करते हुए उपयोग में रागादि भावों को नहीं करता; इसलिए वह कर्म-रज से लिप्त नहीं होता। Further, the same person, living in a place full of dust but after removing all oil that was sticking to his body, exercises with ........................ 117
SR No.009847
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorVijay K Jain
PublisherVikalp
Publication Year2012
Total Pages226
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size2 MB
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