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________________ ३० आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद है कि मुझे मिला हुआ यह आहार गुरु को दिखाया गया तो वे देख कर स्वयं ले लें, मुझे न दें; ऐसा अपने स्वार्थ को ही बड़ा मानने वाला स्वादलोलुप बहुत पाप करता है और वह सन्तोषभाव रहित हो जाता है । निर्वाण को नहीं प्राप्त कर पाता । २०८-२१०] कदाचित् विविध प्रकार के पान और भोजन प्राप्त कर अच्छा-अच्छा खा जाता है और विवर्ण एवं नीरस को ले आता है । (इस विचार से कि) ये श्रमण जानें कि यह मुनि बड़ा मोक्षार्थी है, सन्तुष्ट है, प्रान्त आहार सेवन करता है, रूक्षवृत्ति एवं जैसेतैसे आहार से सन्तोष करने वाला है । ऐसा पूजार्थी, यश-कीर्ति पाने का अभिलाषी तथा मान-सम्मान की कामना करने वाला साधु बहुत पापकर्मों का उपार्जन करता है और मायाशल्य का आचरण करता है । [२११] अपने संयम की सुरक्षा करता हुआ भिक्षु सुरा, मेरक या अन्य किसी भी प्रकार का मादक रस आत्मसाक्षी से न पीए । . [२१२-२१६] मुझे कोई जानता देखता नहीं है-यों विचार कर एकान्त में अकेला मद्य पीता है, उसके दोषों को देखो और मायाचार को मुझ से सुनो । उस भिक्षु की आसक्ति, माया-मृषा, अपयश, अतृप्ति और सतत असाधुता बढ़ जाती है । जैसे चोर सदा उद्विग्न रहता है, वैसे ही वह दुर्मति साधु अपने दुष्कर्मों से सदा उद्विग्न रहता है । ऐसा मद्यपायी मुनि मरणान्त समय में भी संवर की आराधना नहीं कर पाता । न तो वह आचार्य की आराधना कर पाता है और न श्रमणों की । गृहस्थ भी उसे वैसा दुश्चरित्र जानते हैं, इसलिए उसकी निन्दा करते हैं । इस प्रकार अगुणों को ही अहर्निश प्रेक्षण करने वाला और गुणों का त्याग करनेवाला उस प्रकार का साधु मरणान्तकाल में भी संवर की आराधना नहीं कर पाता । [२१७-२२०] जो मेधावी और तपस्वी साधु तपश्चरण करता है, प्रणीत रस से युक्त पदार्थों का त्याग करता है, जो मद्य और प्रमाद से विरत है, अहंकारातीत है उसके अनेक साधुओं द्वारा पूजित विपुल एवं अर्थसंयुक्त कल्याण को स्वयं देखो और मैं उसके गुणों का कीर्तन (गुणानुवाद) करूंगा, उसे मुझ से सुनो । इस प्रकार गुणों की प्रेक्षा करने वाला और अगुणों का त्यागी शुद्धाचारी साधु मरणान्त काल में भी संवर की आराधना करता है । वह आचार्य की आराधना करता है और श्रमणों की भी । गृहस्थ भी उसे उस प्रकार का शुद्धाचारी जानते हैं, इसलिए उसकी पूजा करते हैं । २२१-२२४] (किन्तु) जो तप का, वचन का, रूप का, आचार तथा भाव का चोर है, वह किल्विषिक देवत्व के योग्य कर्म करता है । देवत्व प्राप्त करके भी किल्विषिक देव के रूप में उत्पन्न हुआ वह वहाँ यह नहीं जानता कि यह मेरे किस कर्म का फल है ? वहाँ से च्युत हो कर मनुष्यभव में एडमूकता अथवा नरक या तिर्यञ्चयोनि को प्राप्त करेगा जहाँ उसे बोधि अत्यन्त दुर्लभ है । इस दोष को जान-देख कर ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर ने कहा कि मेधावी मुनि अणुमात्र भी मायामृषा का सेवन न करे । [२२५] इस प्रकार संयमी एवं प्रबुद्ध गुरुओं के पास भिक्षासम्बन्धी एषणा की विशुद्धि सीख कर इन्द्रियों को सुप्रणिहित रखने वाला, तीव्रसंयमी एवं गुणवान् होकर भिक्षु संयम में विचरण करे । -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-५-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
SR No.009790
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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