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________________ २० आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद करना, त्रस्त होना, भागना आदि क्रियाएँ हों तथा जो आगति और गति के विज्ञाता हों, (वे सब त्रस हैं ।) जो कीट और पतंगे हैं, तथा जो कुन्थु और पिपीलिका हैं, वे सब द्वीन्द्रिय, सब त्रीन्द्रिय, समस्त चतुरिन्द्रिय तथा समस्त पंचेन्द्रिय जीव तथा समस्त तिर्यञ्चयोनिक, समस्त नारक, समस्त मनुष्य, समस्त देव और समस्त प्राणी परम सुख-स्वभाव वाले हैं । यह छठा जीवनिकाय त्रसकाय कहलाता है । [३३] -इन छह जीवनिकायों के प्रति स्वयं दण्ड-समारम्भ न करे, दूसरों से दण्डसमारम्भ न करावे और दण्डसमारम्भ करनेवाले अन्य का अनुमोदन भी न करे ।' भंते ! मैं यावजीवन के लिए तीन करण एवं तीन योग से आरंभ न करूँगा, न कराऊंगा और करनेवाले का अनुमोदन करूंगा । भंते ! मैं उस (अतीत में किये हुए) दण्डसमारम्भ से प्रतिक्रमण करता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, गर्दा करता हूँ और व्युत्सर्ग करता हूँ । भंते ! मैं प्रथम महाव्रत (-पालन) के लिए उपस्थित हुआ हूँ । जिसमें सर्वप्रकार के प्राणातिपात से विरत होना होता है । [३४] भंते ! पहले महाव्रत में प्राणातिपात से विरमण करना होता है । हे भदन्त ! मैं सर्व प्रकार के प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हुं । सूक्ष्म बादर त्रस स्थावर कीसी का भि अतिपात न करना, न करवाना, अनुमोदन करना । यह प्रतिज्ञा यावज्जीवन के लिए मैं तीन योग-तीन करण से करता हूं । [३५] भंते ! द्वितीय महाव्रत में मृषावाद के विरमण होता है । भंते ! मैं सब प्रकार के मृषावाद का प्रत्याख्यान करता हूँ । क्रोध से, लोभ से, भय से या हास्य से, स्वयं असत्य न बोलना, दूसरों से नहीं बुलवाना और दूसरे वालों का अनुमोदन न करना; इस प्रकार की प्रतिज्ञा मैं यावजीवन के लिए, तीन करण, तीन योग से करता हूँ । (अर्थात्) मैं मन से, वचन से, काया से मृषावाद स्वयं नहीं करूंगा, न कराऊँगा और न करने वाले का अनुमोदन करूंगा । भंते ! मैं उस से निवृत्त होता हूँ; निन्दा करता हूँ; गर्दा करता हूँ और (मृषावाद से युक्त) आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ । भंते ! मैं द्वितीय महाव्रत के लिए उपस्थित हुआ हूँ, (जिसमें) सर्व-मृषावाद से विरत होना होता है । [३६] भंते ! तृतीय महाव्रत में अदत्तादान से विरति होती है । भंते ! मैं सब प्रकार के अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता हूँ । जैसे कि-गाँव में, नगर में या अरण्य में, अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त हो या अचित्त, अदत्त वस्तु का स्वयं ग्रहण न करना, दूसरों से ग्रहण न कराना और ग्रहण करने वाले किसी का अनुमोदन न करना; यावज्जीवन के लिए तीन करण, तीन योग से; मैं मन से, वचन से, काया से स्वयं (अदत्त वस्तु को ग्रहण) नहीं करूंगा, न ही दूसरों से कराऊँगा और ग्रहण करने वाले अन्य किसी का अनुमोदन भी नहीं करूंगा । भंते ! मैं उस से निवृत्त होता हूँ । निन्दा करता हूँ; गर्दा करता हूँ और अदत्तादान युक्त आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ । भंते ! मैं तृतीय महाव्रत के लिए उपस्थित हुआ हूँ, (जिसमें) सर्व-अदत्तादान से विरत होना होता है । [३७] चतुर्थ महाव्रत में मैथुन से निवृत्त होना होता है । मैं सब प्रकार के मैथुन का प्रत्याख्यान करता हूँ । जैसे कि देव-सम्बन्धी, मनुष्य-सम्बन्धी, अथवा तिर्यञ्च-सम्बन्धी मैथुन का स्वयं सेवन न करना, दूसरों से न कराना और करनेवालों का अनुमोदन न करना; यावज्जीवन
SR No.009790
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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