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________________ ७६ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद समृद्धि न देख शका, वैसे जीव भी सुन्दर धर्मसमृद्धि पाने के लिए समर्थ नहीं होता । [१३३०-१३३३] दो, तीन दिन की बाहर गाँव की सफर करनी होती है, तो सर्वादर से मार्ग की जरुरते, खाने का भाथा आदि लेकर फिर प्रयाण करते है तो फिर चोराशी लाख योनिवाले संसार की चार गति की लम्बी सफर के प्रवास के लिए तपशील - स्वरूप धर्म के भाथा का चितवन वो नहीं करता ? जैसे जैसे प्रहर, दिन, मास, साल, स्वरूप समय पसार होता है, वैसे वैसे महा दुःखमय मरण नजदीक आ रहा है । वैसी समज जिस किसी को कालवेला का ज्ञान नहीं होता, शायद वैसा ज्ञान हो तो भी इस जगत में कोई अजरामर हुआ नहीं या कोई होगा भी नहीं । [१३३४] प्रमादित हुए यह पापी जीव संसार के कार्य करने में अप्रमत्त होकर उद्यम करते है, उसे दुःख होने के बाद भी वो ऊँब नहीं जाता और हे गौतम ! उसे सुख से भी तृप्ति नहीं होती । [१३३५-१३३८] इस जीवने सेंकड़ो जाति में उत्पन्न होकर जितने शरीर का त्याग किया है लेकिन उनमें से कुछ शरीर से भी तीनों समग्र भुवन भी भर जाए । शरीर में भी जो नाखून, दाँत, मस्तक, भ्रमर, आँख, कान आदि अवयव का जो त्याग किया है उन सबके अलग-अलग ढंग किए जाए तो उसके भी कुल पर्वत या मेरु पर्वत जितने ऊँचे ढ़ंग बने, सर्व जो आहार ग्रहण किया है वो समग्र अनन्त गुण इकट्ठा किया जाए तो वो हिमवान, मलय, मेरु पर्वत या द्वीप सागर और पृथ्वी के ढ़ंग से भी ज्यादा आहार के ढ़ंग भारी अधिक हो भारी दुःख आने की वजह से इस जीव ने जो आँसू गिराए है वो सब जल इकट्ठा किया जाए तो समग्र कुऐ, तालाब, नदी और समुद्र में भी न समा शके । [१३३९-१३४१] माता के स्तनपान करके पीया गया दूध भी समुद्र के जल से काफी बढ़ जाए । इस अनन्त संसार में स्त्रीओ की कइ योनि है उसमें से केवल एक कुत्ती साँत दिन पहले मर गई हो और उसकी योनि सड़ गइ हो उसके बीच जो कृमि पेदा हुए हो जीव ने जो क्लेवर छोड़ा हो वो सब इकट्ठे करके साँतवी नरक पृथ्वी से लेकर सिद्धिक्षेत्र तक चौदहराज प्रमाणलोक जितना ढ़ग किया जाए तो उस योनि में पेदा हुए कृमि क्लेवर के उतने अनन्त ग होते है । [१३४२-१३४३] इस जीव ने अनन्तकाल तक हर एक कामभोग यहाँ भुगते है । फिर भी हरएक वक्त विषय सुख अपूर्ण लगते है । लू-खस, खुजली के दर्दवाला शरीर को खुजलाते हुए दुःख को सुख मानता है वैसे मोह में बेचैन मानव काम के दुःख का सुख रूप मानते है । जन्म, जरा, मरण से होनेवाले दुःख को पहचानते है अहेसास करते है । वो भी गौतम ! दुर्गति में गमन के लिए प्रयाण करनेवाला जीव विषय में विरक्त नहीं होता । सूर्य-चन्द्र आदि सर्व ग्रह से अधिक सर्व दोष को प्रवर्तानेवाले दुरात्मा पूरे जगत को पराभव करनेवाले कामाधीन बने परेशान करनेवाले हो तो दुरात्मा महाग्रह ऐसा कामग्रह है अज्ञानी जड़ात्मा जानते है कि भोग ऋद्धि की संपत्ति सर्व धर्म का ही फल है तो भी काफी मूढ़ हृदयवाले पाप करके दुर्गति में जाते है । [१३४७ - १३४९] जीव के शरीर में वात, पित्त, कफ, धातु, जठराग्नि आदि के क्षोभ से पलभर में मौत होती है तो धर्म में उद्यम करो और खेद मत पाना । इस तरह के धर्म का
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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