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________________ महानिशीथ-६/-/११८८ ८१ शील और चारित्र पालन न किया जाए तब तक पाप का क्षय नहीं होता । [११८९-११९८] अब वो लक्ष्मण साध्वी पराये के बहाने से आलोचना ग्रहण करके तपस्या करने लगी, प्रायश्चित् निमित्त से पचास साल तक छठ्ठ-अठ्ठम चार उपवास करके दश साल पसार किए । अपने लिए न किए हो, न करवाए हो, किसी ने साधु का संकल्प करके भोजन तैयार न किए हो, भोजन करनेवाले गृहस्थ के घर बचा हो वैसा आहार भिक्षा में मिले उससे उपवास पूरा करे, दो साल तक भुंजेल चने आहार में ले । सोलह साल लगातार मासक्षमण तप करे । बीस साल तक आयंबिल की तपस्या करे । किसी दिन जुरूरी क्रिया न छोड़ दे । प्रायश्चित् निमित्त से दीनता रहित मन से यह सभी तपस्या करती थी, हे गौतम ! तब वो चिन्तवन करने लगी कि प्रायश्चित् में मैने जो तप किया उससे मेरे दिल का पाप शल्य क्या नहीं गया होगा ? कि जो मन से उस वक्त सोचा था । दुसरी तरह से प्रायश्चित् तो मैंने ग्रहण किया है । दुसरी तरह मैंने किया है, क्या वो आचार नहीं माना जाएगा ? ऐसा चिन्तवन करते हुए वो मर गई । [११९४-११९५] उग्र कष्टदायक घोर उग्र तप करके वो लक्ष्मण साध्वी स्वच्छंद प्रायश्चित्पन की वजह से क्लेश युक्त परीणाम के दोष से वेश्या के घर कुत्सित कार्य करनेवाली हल्की चाकरड़ी के रूप में पेदा हुई, खंडोष्ठा उसका नाम रखा गया । काफी मीठा बोलनेवाली मद्य-घास की भारी को वहन करनेवाली सभी वेश्या का विनय करनेवाली और उनकी बुढ़ियाँ का चार गुना विनय करनेवाली थी । उसका लावण्य कान्ति से युक्त होने के बाद भी वो मस्तक से केश रहित थी । किसी दिन बुढ़ियाँ चिन्तवन करने लगी कि मेरे इस मस्तक जैसा लावण्य, रूप और कान्ति या वैसा इस भवन में किसी का रूप नहीं है तो उसके नाक, कान और होठ को वैसे विरूपवाले बदसूरत कर दूं । [११९९-१२०२] जब वो यौवनवंती होगी तब मेरी पुत्री की कोई ईच्छा नहीं रखेगा । या तो पुत्री समान उसे इस प्रकार करना युक्त नहीं है । यह काफी विनीत है । यहाँ से कहीं ओर चली जाएगी तो मैं उसे वैसी कर दूं कि वो शायद दुसरे देश में चली जाए तो कहीं भी रहने का स्थान न पा शके और वापस आ जाए | उसे ऐसा वशीकरण दूँ कि जिससे उसका गुप्तांग सड़ जाए । हाथ-पाँव में बेड़ियाँ पहनाऊँ जिससे नियंत्रणा से भटक जाए और पुराने कपड़े पहनाऊँ और मन में संताप करते हुए शयन करे । [१२०३-१२०८] उसके बाद खंडओष्ठा से भी सपने में सड़ा हुआ गुप्तांग, बेड़ी में जकड़े हुए, कान-नाक कटे हुए हो वैसी खुद को देखकर सपने का परमार्थ सोचकर किसी को पता न चले इस तरह वहाँ से भाग गई और किसी तरह से गाँव, पुर, नगर, पट्टण में परिभ्रमण करते करते छ मास के बाद संखेड़ नाम के खेटक में जा पहुँची । वहाँ कुबेर समान वैभववाले रंड पुत्र के साथ जुड़ गई । पहली बीवी जलन से उस पर काफी जलने लगी । उनके रोष से काँपते हुए उस तरह कुछ दिन पसार किए । एक रात को खंडोष्ठा भर निद्रा में सोती थी उसे देखकर अचानक चूल्हे के पास दौड़ी और सुलगता काष्ठ ग्रहण करके आई । उस सुलगते लकड़े को उसके गुप्तांग में इस तरह घुसेड़ दिया कि वो फट गया और हृदय तक वो लकड़ा जा पहुँचा उसके बाद दुःखी स्वर से आक्रंद करने लगी । चलायमान पाषाण समान इधर-उधर रगड़ते हुए रेंगने लगी ।
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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