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________________ महानिशीथ-६/-/११४० गति में और अधम मानव पन में जिस तरह की नियंत्रण की हैरान गति भुगतनी पड़ेगी, वो सुनकर किसे घृति प्राप्त होगी ? [११४१] हे भगवंत ! वो रज्जु आर्या कौन थी और उसने अगीतार्थपन के दोष से केवल वचन से कैसा पापकर्म उपार्जन किया कि जो विपाक सुनकर धृति न पा शके ? हे गौतम ! इसी भरत क्षेत्र में भद्र नाम के आचार्य थे । उन्हें महानुभाव ऐसे पाँच सौ शिष्य और बारह सौ निर्ग्रन्थी-साध्वी थी । उस गच्छ में चौथे (आयंबिल) रसयुक्त ओसामण तीन उबालावाला काफी ऊबाला हुआ तीन तरह के अचित्त जल के सिवा चौथे तरह के जल का इस्तेमाल नहीं होता था । किसी वक्त रजा नाम की आर्या को पहले किए गए अशुभ पापकर्म के उदय की वजह से कुष्ठ व्याधि से शरीर सड़ गया और उसमें कृमि पेदा होकर उसे खाने लगी । किसी वक्त आर्या को देखकर गच्छ में रही दुसरी संयती उन्हें पूछने लगी किअरे अरे दुष्करकारिके ? यह तुम्हें अचानक क्या हुआ ? तब हे गौतम ! महापापकर्मी भनलक्षण जन्मवाली उस रज्जा, आर्या ने संयतीओ को ऐसा प्रत्युत्तर दिया है, यह अचित्त जल का पान करने की वजह से यह मेरा शरीर नष्ट हुआ है । जितने मे यह वचन बोली उतने में सर्व संयत्ति के समूह के हृदय क्षोभित हुए है हम भी इस अचित्त जल का पान करेंगे इससे इनकी तरह मौत मिलेगी । लेकिन उस गच्छ में से एक साध्वी ने चिन्तवन किया कि-शायद यह मेरा शरीर एक पलक जितने अल्प समय में ही सड़ जाए और सड़कर टुकड़े-टुकड़े हो जाए तो भी सचित्त जल का पान इस जन्म में कभी नहीं करूँगा । अचित्त जल का त्याग नहीं करूँगा । दुसरा अचित्त जल से इस साध्वी का शरीर नष्ट हो गया है वो हकीकत क्या सत्य है ? सर्वथा यह बात सत्य नहीं है । क्योंकि पूर्व भव में किए गए अशुभ पाप कर्म के उदय से ही ऐसा होता है । उस प्रकार काफी सुन्दर सोच करने लगी । अरे, देखो तो सही कि अज्ञान दोष से अवराएल काफी मूढ़ हृदयवाली लज्जा रहित होकर यह महापाप-कर्मणी साध्वीने संसार के घोर दुःख देनेवाले ऐसा-कैसा दुष्ट वचन कहा ? कि मेरे कान ने विवर में भी प्रवेश नहीं कर शकता । तो भवान्तर में किए गए अशुभ पापकर्म के उदय की वजह से जो कुछ दरिद्रता, दुर्भाग्य, अपयश, झूठे कलंक लगना कुष्ठादिक व्याधि के क्लेश के दुःख शरीर में लगना, आदि पेदा होते है । उसमें कोई फर्क नहीं होता। क्योंकि आगम में कहा है कि [११४२] 'खुद के उपार्जन किए हुए दुःख या सुख कौन किसको दे शकता है या ले शकता है ? खुद के किया हुआ कर्म कौन हर शकता है और किसका कर्म हरण कर शकते है ? खुद के किए हुए कर्म और उपार्जित किए गए सुख या दुःख तो खुद ही भुगतने पडे।' [११४३] ऐसा सोचते हुए उस साध्वीजी को केवलज्ञान पेदा हुआ । उस वक्त देव ने केवलज्ञान का महोत्सव किया । वो केवली साध्वीजी ने मानव, देव असुर के और साध्वी के संशयरूप अंधकार के पड़ल को दूर किया । उसके बाद भक्ति भरपूर हृदयवाली रजा आर्या ने प्रणाम करके सवाल पूछा कि हे भगवंत ! किस वजह से मुजे इतनी बड़ी महावेदनावाला व्याधि पेदा हुआ ? तब हे गौतम ! जलवाले मेघ और दुंदुभि के शब्द समान मनोहर गम्भीर स्वरवाले केवलीने कहा कि हे दुष्करकारिके तुं सुन-कि तुम्हारे शरीर का विघटन क्यों हुआ ? तुम्हारा शरीर रक्त और पित्त के दोष से दूषित तो था ही और फिर उसमें उस स्निग्ध आहार 115
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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