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________________ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद वाकइ पापमतिवाला मैं उड्डाहणा करवाऊँगा तो अनार्य ऐसा मैं कहाँ जाऊँगा ? या फिर चन्द्र लांछनवाला है, मोगरे के पुष्प की प्रभा अल्पकाल में मुझनिवाली है, जब कि जिन शासन तो कलिकाल की कलुषता के मल और कलंक से सर्वथा रहित लम्बे अरसे तक जिसकी प्रभा टिकनेवाली है, इसलिए समग्र दारिद्रय, दुःख और क्लेश का क्षय करनेवाले इस तरह के इस जैन प्रवचन की अपभ्राजना करवाऊँगा तो फिर कहाँ जाकर अपने आत्मा की शुद्धि करूँगा? दुःख से करके गमन किया जाए, बड़ी-बड़ी शिलाए हो, जिसकी बड़ी खदान हो, वो पर्वत पर चड़कर जितने में विषयाधीन होकर मैं सहज भी शासन की उड्डाह न करूँ उसके पहले छलांग लगाकर मेरे शरीर के टुकड़े कर दूँ । उस प्रकार फिर से छेदित शिखरवाले महापर्वत पर चड़कर आगार रखे बिना पच्चखाण करने लगे । तब फिर से आकाश में से इस प्रकार शब्द सुनाइ दिए-अकाले तुम्हारी मौत नहीं होगी । यह तुम्हारा अन्तिम भव और शरीर है । इसलिए बद्ध स्पृष्ट भोगफल भुगतकर फिर संयम । स्वीकार कर । [८६५-८७०] इस प्रकार चारण मुनि ने जब दो बार (आत्महत्या करते) रोका तब गुरु के चरण कमल में जाकर उनके पास वेश अर्पण करके फिर निवेदन किया कि सूत्र और अर्थ का स्मरण करते-करते देशान्तर में गथा था, वहाँ आहार ग्रहण करने के लिए वेश्या के घर जा पहुँचा । जब मैंने धर्मलाभ सुनाया तब मेरे पास अर्थलाभ की माँग की । तब मेरी उस तरह की लब्धि सिद्ध होने से मैंने उस वक्त कहा कि भले वैसा हो | उस वक्त वहाँ साड़े बारह क्रोड़ प्रमाण द्रव्य की सुवर्ण वृष्टि करवाले उसके मंदिर से बाहर नीकल गया । ऊँचे विशाल गोल स्तनवाली गणिका दृढ़ आलिंगन देकर कहने लगी कि अरे ! क्षुल्लक ! अविधि से यह द्रव्य देकर वापस क्यों चला जाता है ? भवितत्य के योग से नंदिषेण ने भी अवसर के अनुरूप सोचकर कहा कि तुम्हें जो विधि इष्ट हो उसे तुम वो द्रव्य देना । [८७१-८७४] उस वक्त उसने ऐसा अभिग्रह ग्रहण किया और उसके मंदिर में प्रवेश किया । कौन-सा अभिग्रह किया ? हररोज मुजे दश लोगों को प्रतिबोध देना और एक भी कम रहे और दीक्षा अंगीकार न करे तब तक भोजन और पानविधि न करना । मेरी प्रतिज्ञा पूरी न हो तब तक मुजे स्थंडिलमात्र (दस्त-पेशाब) न करने । दुसरा प्रवज्या लेने के लिए तैयार लोगो को प्रवज्या न देनी । क्योंकि गुरु का जैसा वेश हो (यानि गुरु का जैसा आचरण हो) वैसा ही शिष्य का होता है ।) गणिका ने सुवर्णनिधि क्षय न हो वैसा इन्तजाम करके लुंचित मस्तकवाले और जर्जरित देहवाला नंदिषेण को उस तरह आराधन किया कि जिससे उसके स्नेहपाश में बँध गया । [८७५-८७७] आलाप-बातचीत करने से प्रणय पेदा हो, प्रणय से रति हो, रति से भरोसा पेदा हो । भरोसे से स्नेह इस तरह पाँच तरह का प्रेम होता है । इस प्रकार वो नंदिषेण प्रेमपाश से बँधा होने के बाद भी शास्त्र में बताया श्रापकपन पालन करे और हररोज दश या उससे ज्यादा प्रतिबोध करके गुरु के पास दीक्षा लेने को भेजते थे । ८७७-८८१] अब वो खुद दुर्मुख सोनी से प्रतिबोध किस तरह पाया ? उसने नंदिषेण को कहा कि लोगों को धर्मोपदेश सुनाते हो और आत्मकार्य में तुम खुद ही फिक्रमंद हो । वाकई यह धर्म क्या बेचने की चीज है ? क्योंकि तुम खुद तो उसे अपनाते नहीं । ऐसा दुर्मुख का सुभाषित वचन सुनकर काँपते हुए अपनी आत्मा की दीर्घकाल तक निंदा करने
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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