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________________ ४८ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद पाए. हे भगवंत ! वो सावधाचार्य कौन थे? उसने क्या अशुभ फल पाया? हे गौतम ! यह ऋषभादिक तीर्थंकर की चोवीस के पहले अनन्त काल गया उसके पहले किसी दुसरी चोवीसी में जैसा में साँत हाथ प्रमाण की कायावाला हूँ वैसी कायावाले धर्म तीर्थंकर थे । उनके तीर्थ में साँत आश्चर्य हुए थे । अब किसी समय वो तीर्थंकर भगवंत का परिनिर्वाण हो गया तब कालक्रम से अनुरागी हुए समूह को पहचानकर उस समय न जाने हुए शास्त्र के सद्भाववाले, तीन गाख रूप, मदिरा में बेचैन, केवल नाम के आचार्य और गच्छनायक ने श्रावक के पास से धन पाकर द्रव्य इकट्ठा करके हजार स्तंभवाला ऊँचा ममत्वभाव से अपने नाम का चैत्यालय बनाकर वो दुरन्त पंत लक्षणवाले अधमाधमी उसी में रहने लगे । उनमें बलवीर्य पराक्रम पुरुषार्थ होने के बावजूद भी वो पुरुषकार पराक्रम बल वीर्य को छिपाकर उग्र अभिग्रह करने के लिए अनियत विहार करने का त्याग करके-छोडकर नित्यवास का साश्रय करके, संयम आदि में शिथिल होकर रहे थे । पिछे से यह लोक और परलोक के नुकशान की फिक्र का त्याग करके, लम्बे अरसे का संसार अंगीकार करके वो ही मठ और देव कुल में अति परिग्रह, बुद्धि, मूर्छा, ममत्त्वकरण, अहंकार आदि करके, संयम मार्ग में पीछे पड़े पराभवित होने के बाद खुद तरह-तरह की पुष्प की माला आदि से (गृहस्थ की तरह) देवार्चन करने के लिए उद्यमशील होने लगे । और फिर जिस शास्त्र के सार समान श्रेष्ठ ऐसा सर्वज्ञ का वचन है, उसे काफी दूर से त्याग किया । उसी के अनुसार सर्व जीव, सर्व प्राण, सर्व भूत, सर्व सत्त्व का वध न करना, उनको दर्द न देना । उन्हें परिताप का देना, उन्हें ग्रहण न करना यानि पकड़कर बन्द न करना । उनकी विराधना न करनी, किलामणा न करना, उनका उपद्रव न करना, सूक्ष्म बादर, त्रस या स्थावर, पर्याप्त, अपर्याप्त, एकेन्द्रिय, जो कोई बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चऊरिन्द्रिय जीव हो, पंचेन्द्रिय जीव हो वो सभी त्रिविध-त्रिविध से मन, वचन, काया से मारना नहीं, मरवाना नहीं, मारनेवाले को अच्छा मत समजना, उनकी अनुमोदना न करना, ऐसी खुद ने अपनाई हुई महाव्रत की प्रतिज्ञा भी भूल गए । और फिर हे गौतम ! मैथुन एकान्त में या निश्चय से या दृढ़ता से और जल एवं अग्नि का समारम्भ सर्वथा सर्व तरह से मुनि खुद वर्जन करे । इस तरह का धर्म ध्रुव, शाश्वत, नित्य है, ऐसा लोगो का खेद दुःख को जाननेवाले सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवंत ने प्ररूपण किया है ।। [८३८] हे भगवंत ! यदि कोई साधु या साध्वी या निग्रंथ अणगार द्रव्यस्तव करे उसे क्या कहे ? हे गौतम ! जो कोई साधु या साध्वी या निर्ग्रन्थ अणगार द्रव्यस्तव करे वो असंयत-अयति देवद्रव्यका भोगिक या देव का पूजारी उन्मार्ग की प्रतिष्ठा करनेवाला, शील को दूर से त्याग करनेवाला, कुशील, स्वच्छंदाचारी ऐसे शब्द से बुलाते है ।। [८३९] उसी तरह हे गौतम ! इस तरह अनाचार प्रवर्तनेवाले कई आचार्य एवं गच्छनायक के भीतर एक मरकत रत्न समान कान्तिवाले कुवलयप्रभ नाम के महा तपस्वी अणगार थे । उन्हें काफी महान जीवादिक चीज विषयक सूत्र और अर्थ सम्बन्धी विस्तारवाला ज्ञान था । इस संसार समुद्र में उन योनि में भटकने के भयवाले थे । उस समय उस तरह का असंयम प्रवर्तने के बावजूद, अनाचार चलता होने के बाद, कुछ साधर्मिक ससंयम और अनाचार का सेवन करते रहने के बाद भी वो कुवलयप्रभ अनगार तीर्थंकरकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करते थे ।
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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