SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद सिद्धि कर देनेवाले, अनादि से अच्छी तरह से सिद्ध हुआ है । देवेन्द्र को भी वंदनीय है ऐसे अतुल बल, वीर्य, असामान्य सत्त्व, पराक्रम, महापुरुषार्थ, कांति, तेज, लावण्य, रूप, सौभाग्य, अति कला के समूह से समृद्धि से शोभित, अनन्त ज्ञानी, अपने आप प्रतिबोध पाए हुए जिनवर और अनन्त अनादि सिद्ध वर्तमान समय में सिद्ध होनेवाले, दुसरे नजदीकी काल में सिद्धि पानेवाले ऐसे अनन्ता जिनके नाम सुबह को ग्रहण करने के लायक है, महासत्त्ववाले, महानुभाग, तीन भवन में एक तिलक समान, जगत में श्रेष्ठ, जगत के एक बँधु, जगत के गुरु, सर्वज्ञ सर्व जाननेवाले, सर्व देखनेवाले, श्रेष्ठ उत्तम धर्मतीर्थ प्रवर्तानेवाले, अरिहंत भगवंत भूत, भावि आदि अनागत वर्तमान निखिल समग्र गण पर्याय सर्व चीज का सदभाव जिसने पहचाना है किसी की भी सहाय न लेनेवाले, सर्व श्रेष्ठ, अकेले, जिनका एक ही मार्ग है ऐसे तीर्थंकर भगवंत उन्होंने सूत्र से, अर्थ से, ग्रंथ से, यथार्थ उसकी प्ररूपणा की है, यथास्थिति अनुसेवन किया है । कहने के लायक, वाचना देने के लायक, प्ररूपणा करने के लायक, बोलने के लायक, कथन करने के लायक, ऐसे यह बारह अंग और उसके अर्थ स्वरूप गणिपिटक है । वो बारह अंग और उसके अर्थ तीर्थंकर भगवंत कि जो देवेन्द्र को भी वंदनीय है, समग्र जगत के सर्व द्रव्य और सर्व पर्याय सहित गति आगति इतिहास बुद्धि जीवादिक तत्त्व चीज के स्वभाव के सम्पूर्ण ज्ञाता है । उन्हें भी अलंघनीय है । अतिक्रमणीय नहीं है, आशातना न करने के लायक है । और फिर यह बारह अंगरूप श्रुतज्ञान सर्व जगत के जीव, प्राण, भूत और सत्त्व को एकान्त में हितकारी, सुखकारी कर्मनाश करने में समर्थ निःश्रेयस यानि मोक्ष की कारण समान है । भवोभव साथ में अनुसरण करनेवाले है । संसार का पार बतानेवाले है । प्रशस्त, महाअर्थ से भरपूर है, उसमें फल स्वरूप आदि बताए होने से महागुण युक्त, महाप्रभावशाली है, महापुरुष ने जिसका अनुसरण किया है । परम महर्षि ने तीर्थंकर भगवंत ने उपदेश दिया है । जो द्वादशांगी दुःख का क्षय करने के लिए ज्ञानावरणीय आदि कर्म का क्षय करने के लिए, राग, द्वेष आदि के बंधन से मुक्त होने के लिए, संसार-समुद्र से पार उतरने के लिए समर्थ है । ऐसा होने से वो द्वादशांगी को अंगीकार करके विचरण करूँगा। उसके अलावा मेरा कोई प्रयोजन नहीं है । इसलिए जिस किसी ने शास्त्र का सद्भाव न पहचाना हो, या शास्त्र का सार जाना हो वो, गच्छाधिपति या आचार्य जिसके परीणाम भीतर से विशुद्ध हो तो भी गच्छ के आचार, मंडली के धर्म, छत्तीस तरह के ज्ञानादिक के आचार यावत् आवश्यकादिक करणीय या प्रवचन के सार को बार-बार चूके, स्खलना पाए या इस बारह अंगरूप श्रुतज्ञान के भीतर गूंथे हुए या भीतर हा एक पद या अक्षर को विपरित रूप से प्रचार करे, आचरण करे उसे उन्मार्ग दिखानेवाला समजना । जो उन्मार्ग दिखाए वो अनाराधक बने, इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि वो एकान्ते अनाराधक है। [८३४] हे भगवंत ! ऐसा कोई (आत्मा) होगा कि जो इस परम गुरु का अलंघनीय परम शरण करने के लायक स्फुट-प्रकट, अति प्रकट, परम कल्याण रूप, समग्र आँठ कर्म और दुःख का अन्त करनेवाला जो प्रवचन-द्वाशांगी रूप श्रुतज्ञान उसे अतिक्रम या प्रकर्षपन से अतिक्रमण करे, लंघन करे, खंडित करे, विराधना करे, आशातना करे, मन से, वचन से या काया से अतिक्रमण आदि करके अनाराधक हो शकते है क्या ?
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy