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________________ महानिशीथ-५/-/८११ ३७ होगा । तो भी वो गच्छ की व्यवस्था नहीं तोड़ेगे । [८१२-८१३] हे भगवंत ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है, तो भी गच्छ व्यवस्था का उल्लंघन नहीं होगा । हे गौतम ! यहाँ नजदीकी काल में महायशवाले महासत्त्ववाले महानुभाग शय्यंभव नाम के महा तपस्वी महामतिवाले बारह अंग समान श्रुतज्ञान को धारण करनेवाले ऐसे अणगार होंगे वो पक्षपात रहित अल्प आयुवाले भव्य सत्त्व को ज्ञान के अतिशय के द्वारा ११ अंग और १४ पूर्व के परमसार और नवनीत समान अति प्रकर्षगुणयुक्त सिद्धि के मार्ग समान दशवैकालिक नाम के श्रुतस्कंध की नियुहणा करेंगे । हे भगवंत ! वो किसके निमित्त से ? हे गौतम ! मनक के निमित्त से । ऐसा मानकर कि इस मनक परम्परा से अल्पकाल में बड़े घोर दुःख सागर समान यह चार गति स्वरुप संसार सागर में से किस तरह पार पाए ? वो भी सर्वज्ञ के उपदेश बिना तो हो ही नहीं शकता । इस सर्वज्ञ का उपदेश पार रहित और दुःख से करके अवगाहन किया जाए वैसा है । अनन्तगमपर्याय से युक्त है । अल्पकाल में इस सर्वज्ञ ने बताए सर्व शास्त्र में अवगाहन नहीं किया जाता । इसलिए हे गौतम ! अतिशय ज्ञानवाले शय्यंभव ऐसा चिन्तवन करेंगे कि ज्ञानसागर का अन्त नहीं, काल अल्प है, विघ्न कईं है, इसलिए जो सारभूत हो वो जिस तरह खारे जल में से हंस मीठा जल ग्रहण करवाता है उस तरह ग्रहण कर लेना । [८१४] उन्होंने इस भव्यात्मा मनक को तत्त्व का परिज्ञान हो ऐसा जानकर पूर्व में से - बड़े शास्त्र में से दशवकालिक श्रुतस्कंध की निर्युहणा की । उस समय जब बारह अंग और उसके अर्थ का विच्छेद होगा तब दुष्मकाल के अन्त काल तक दुप्पसह अणगार तक दशवैकालिक सूत्र और अर्थ से पढ़ेगे, समग्र आगम के सार समान दशवैकालिक श्रुतस्कंध सूत्र से पढ़ेंगे । हे गौतम ! यह दुप्पसह अणगार भी उस दश वैकालिक सूत्र में रहे अर्थ के अनुसार प्रवतेंगे लेकिन अपनी मतिकल्पना करके कैसे भी स्वच्छंद आचार में नहीं प्रर्वतेगें । उस दशवैकालिक श्रुतस्कंध में उस समय बारह अंग रूप श्रुतस्कंध की प्रतिष्ठा होगी । हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि सरल लगे उस तरीके से जैसे भी गच्छ की व्यवस्था की मर्यादा का उल्लंघन मत करना । [८१५] हे भगवंत ! अति विशुद्ध परीणामवाले गणनायक की भी किसी वैसे दुःशील शिष्य स्वच्छंदता से, गारख कारण से या जातिमद आदि से यदि आज्ञा न माने या उल्लंघन करे तो वो आराधक होता है क्या ? शत्रु और मित्र प्रति समभाववाले गुरु के गुण में वर्तते हमेशा सूत्रानुसार विशुद्धाशय से विचरते हो वैसे गणी की आज्ञा का उल्लंघन करनेवाले चार सौ निन्नानवे साधु जिस तरह अनाराधक हुए वैसे अनाराधक होते है । [८१६] हे भगवंत ! एक रहित ऐसे ५०० साधु जिन्होंने वैसे गुणयुक्त महानुभाव गुरु महाराज की आज्ञा का उल्लंघन करके आराधक न हुए वो कौन थे ? हे गौतम ! यह ऋषभदेव परमात्मा की चोवीसी के पहले हुई तेईस चौवीसी और उस चौवीसी के चौवीसवे तीर्थंकर निर्वाण पाने के बाद कुछ काल गुण से पेदा हुए कर्म समान पर्वत का चूरा करनेवाला, महायशवाले, महासत्त्ववाले महानुभाव सुबह में नाम ग्रहण करने लायक “वईर" नाम के गच्छाधिपति बने साध्वी रहित उनका पाँच सौ शिष्य के परिवारवाला गच्छ था । साध्वी के साथ गिना जाए तो दो हजार की संख्या थी ।
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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