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________________ २२८ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद कहलाते है । पानी पर घृतादि अनन्तर और उसी बरतन आदि में रहे परम्पर अपकाय निक्षिप्त होता है । अग्निकाय पर पृथ्वीकाय आदि साँत प्रकार से निक्षिप्त होते है । विध्यात, मुर्मुर, अंगार, अप्राप्त, प्राप्त, समजवाले और व्युत्क्रांत । विध्यात - साफ प्रकार से पहले अग्नि न दिखे, पीछे से ईंधन डालने से जलता हुआ दिखे । मुर्मुर-फीके पड़ गए, आँधे बुझे हुए अग्नि के कण । अंगार - ज्वाला बिना जलते कोयले । अप्राप्त चूल्हे पर बरतन आदि रखा हो उसे अग्नि की ज्वाला छूती न हो । प्राप्त - अग्नि ज्वालाए बरतन को छूती हो । सम ज्वाला - ज्वालाएँ बढ़कर बरतन के ऊपर तक पहुँची हो । व्युत्क्रांत ज्वालाए इतनी बढ़ गई हो कि बरतन से उपर तक चली जाए । इन साँत में अनन्तर और परम्पर ऐसे दोनों प्रकार से हो विध्यातादि अग्नि पर सीधे ही मंड़क आदि हो तो अनन्तर निक्षिप्त न कल्पे और बरतन आदि में हो वो परम्पर अग्निकाय निक्षिप्त कहलाता है । उसमें अग्नि का स्पर्श न होता हो तो लेना कल्पे । पहले चार में कल्पे और ५-६-७ में न कल्पे । कईं बार बड़े भट्टे पर चीज रखी तो तो वो कब कल्पे वो बताते है । भट्ठा पर जो बरतन आदि रखा हो उसके चारों ओर मिट्टी लगाई हो, वो विशाल बड़ा हो, उसमें इक्षुरस आदि रहा हो वो रस आदि गृहस्थ को देने की इच्छा हो तो यदि वो रस ज्यादा गर्म न हो और देते हुए बुंदै गिरे तो वो मिट्टी के लेप में सूख जाए यानि भढे में बुंदे गिर न शके । और फिर अग्नि की ज्वाला बरतन को लगी न हो तो वो रस आदि लेना कल्पे। उसके अलावा न कल्पे । इस प्रकार सभी जगह समज लेना । सचित्त चीज का स्पर्श होता हो तो लेना न कल्पे । बरतन चारो ओर लीपित, रस ज्यादा गर्म न हो, देते समय धुंद न गिरे । बुंद गिरे तो लेप में सूख जाए । इन चार पद को आश्रित करके एक दुसरे के साथ रखने से सोलह भाँगा होते है । इन सोलह भाँगा में पहले भाँगा का कल्पे, बाकी पंद्रह का न कल्पे । ज्यादा गर्म लेने में आत्म विराधना और पर विराधना होती है । काफी गर्म होने से साधु लेते समय जल जाए तो आत्म विराधना, गृहस्थ जल जाए तो पर विराधना । बड़े बरतन से देने से देनेवाले को कष्ट हो उस प्रकार गिर जाए तो छह काय की विराधना | इससे संयम विराधना लगे । इसलिए साधु को इस प्रकार का लेना न कल्पे | पवन की ऊठाई हुई चावल को पापड़ी आदि अनन्तर निक्षिप्त कहलाता है और पवन से भरी बस्ती आदि पर रोटियाँ, रोटी आदि हो तो अनन्तर निक्षिप्त । त्रसकाय में बैल, घोड़े आदि की पीठ पर सीधी चीज रखी हो तो अनन्तर निक्षिप्त और गुणपाट या अन्य बरतन आदि में चीज रखी हो तो परम्पर त्रसकाय निक्षिप्त कहलाता है । इन सबमें अनन्तर निक्षिप्त न कल्पे, परम्पर निक्षिप्त में सचित्त संघट्टन आदि न हो उस प्रकार से योग्य यतनापूर्वक ले शके । इस प्रकार ४३२ भेद हो शकते है । [६००-६०४] साधु को देने के लिए अशन आदि सचित्त, मिश्र या अचित्त हो और वो सचित्त, अचित्त या मिश्र से ढंका हुआ हो यानि ऐसे सचित्त, अचित्त और मिश्र से ढंके हुए की तीन चतुर्भंगी होती है । हरएक के पहले तीन भाँगा में लेना न कल्पे । अंतिम भाँगा में भजना यानि किसी में कल्पे किसी में न कल्पे । पहली चतुर्भगी सचित्त से सचित्त बँका हुआ । मिश्र से सचित्त हँका हुआ, सचित्त से मिश्र इँका हुआ । मिश्र से मिश्र ढंका हुआ ।
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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