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________________ ओघनियुक्ति-११४३ १७७ [११४३] चारित्र का पालन करने से जो जो विरुद्ध आचरण हो उसे प्रतिसेवना कहते है । प्राणातिपात आदि छह स्थान और उद्गम आदि तीन स्थान में से किसी भी एक स्थान में स्खलना हुई हो तो साधु को दुःख के क्षय के लिए विशुद्ध होने के लिए आलोचे। [११४४] आलोचना दो प्रकार से - मूलगुण सम्बन्धी और उत्तरगुण सम्बन्धी । यह दोनों आलोचना साधु, साध्वी वर्ग में चार कानवाली होती है । किस प्रकार ? साधु में एक आचार्य और आलोचना करनेवाला साधु, ऐसे दो के चार कान, साध्वी में एक प्रवर्तिनी और दुसरी साध्वी आलोचनाकारी करनेवाली साध्वी, ऐसे दो के मिलाकर चार कान । वो आचार्य के पास मुलगण और उत्तरगण को आलोचना करे दोनों के मिलकर आँठ कानवाली आलोचना बने । एक आचार्य और उनके साथ एक साधु के मिलकर चार कान एवं प्रवर्तिनी और दुसरी साध्वी आलोचनाकारी ऐसे चारो के मिलकर आँठ कान होते है । आचार्य वृद्ध हो तो छह कानवाली भी आलोचना होती है । साध्वी को आचार्य के पास आलोचना लेते समय साथ में दुसरी साध्वी जरुर रखनी चाहिए । अकेली साध्वी को कभी आलोचना नहीं करनी चाहिए। उत्सर्ग की प्रकार आलोचना आचार्य महाराज के पास करनी चाहिए । आचार्य महाराज न हो, तो दुसरे गाँव में जांच करके आचार्य महाराज के पास आलोचना करे । आचार्य महाराज न हो तो गीतार्थ के पास आलोचना करे । गीतार्थ भी न मिले तो यावत् अन्त में श्री सिद्ध भगवंत की साक्षी में भी यकीनन आलोचना करके आत्मशुद्धि करनी चाहिए । [११४५] आलोचना, विकटना, शुद्धि, सद्भावदायना, निंदना, गर्हा, विकुट्टणं, सल्लुद्धरण पर्यायवाची नाम है । [११४६] धीर पुरुषने, ज्ञानी भगवंत ने शल्योद्धार करनेका फरमान किया है, वो देखकर सुविहित लोग उसका जीवन में आचरण करके अपने आत्मा की शुद्धि करते है । [११४७-११५२] शुद्धि दो प्रकार से - द्रव्यशुद्धि, भावशुद्धि । द्रव्यशुद्धि वस्त्र आदि को साफ करने के लिए । भाव शुद्धि मूलगुण और उत्तरगुण में जो दोष लगे हो, उसकी आलोचना प्रायश्चित् के द्वारा शुद्धि करे । रूपादि छत्तीस गुण से युक्त ऐसे आचार्य को भी शुद्धि करने का अवसर आए तो दुसरों की साक्षी में करनी चाहिए । जैसे कुशल वैद्य को भी अपने आप के लिए इलाज दुसरों से करवाना पड़ता है । उसी प्रकार खुद को प्रायश्चित् की विधि का पता हो तो भी यकीनन दुसरों से आलोचना करके शुद्धि करनी चाहिए । ऐसे आचार्य को भी दुसरों के आगे आलोचना की जरुर है, तो फिर दुसरों की तो क्या बात । इस लिए हर किसी को गुरु के सामने विनयभूत अंजली, जुड़कर आत्मा की शुद्धि करे । यह सार है । जिन्होंने आत्मा का सर्व रजमल दूर किया है ऐसे श्री जिनेश्वर भगवंत के शासन में फरमान किया है कि, 'जो आत्मा सशल्य है उसकी शुद्धि नहीं होती । सर्व शल्य का जो उद्धार करते है, वो आत्मा ही शुद्धि बनता है ।' [११५३] सहसा, अज्ञानता से, भय से, दुसरों की प्रेरणासे, संकट में, बिमारी की वेदना में, मूढ़ता से, रागद्वेष से, दोष लगते है यानि शल्य होता है । सहसा - डग देखकर उठाया वहाँ तक नीचे कुछ भी न था, लेकिन पाँव रखते ही नीचे कोइ जीव आ जाए आदि से । अज्ञानता से - लकड़े पर निगोद आदि हो लेकिन उसके ज्ञान बिना उसे पोछ डाला 11 12
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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