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________________ ओघनियुक्ति-१००५ १७१ प्रकार का व्याघात न हो तो कालग्रही और दांडीधर आचार्य महाराज के पास जाकर आज्ञा माँगे कि, हम कालग्रहण करे ? लेकिन यदि नीचे के अनुसार व्याघात हो तो काल ग्रहण न करे । आचार्य को न पूछा हो या अविनय से पूछा हो, वंदन न किया हो, आवस्सही न कही हो, अविनय से कहा हो, गिर पड़े, इन्द्रिय के विषय प्रतिकूल हो, दिग्मोह हो, तारे गिरे, अस्वाध्याय हो, छींक आए, उजेही लगे इत्यादि व्याघात - विघ्न आदि हो तो कालग्रहण किए बिना वापस मुड़े । शुद्ध हो तो कालग्रहण करे । दुसरे साधु उपयोग पूर्वक ध्यान रके । कालग्रही कैसा हो ? प्रियधर्मी, दृढ़धर्मी, मोक्षसुख का अभिलाषी, पापभीरू, गीतार्थ सत्त्वशील हो ऐसा साधु कालग्रहण करे । काल चार प्रकार के-१. प्रादोषिक, २. अर्धरात्रिक, ३. वैरात्रिक, ४. प्राभातिक । प्रादेशिक काल में सबके साथ सज्झाय स्थापना करे, बाकी तीन में साथ में या अलग-अलग स्थापना करे । (यहाँ नियुक्ति में कुछ विधि एवं अन्य बातें भी है जो परम्परा के अनुसार समजे क्योंकि विधि और वर्तमान परम्परा में फर्क है ।) ग्रीष्मकाल में तीन तारा गिरे तो शिशिरकाल में पाँच तारे गिरे तो और वर्षाकाल में साँत तारे गिरे तो काल का वध होता है । वर्षाकाल में तीनो दिशाए खुली हो तो प्राभातिक और चार दिशाएँ खुली हो तो तीनों कालग्रहण किया जाए । वर्षाकाल में आकाश में तारे न दिखे तो भी कालग्रहण करे । प्रादेशिक और अर्धरात्रिक काल उत्तर दिशा में, वैरात्रिक काल उत्तर या पूरब में, प्राभातिक काल पूरब में लिया जाए । प्रादेषिक काल शुद्ध हो, तो स्वाध्याय करके पहली दुसरी पोरिसी में जागरण करे, काल शुद्ध न आए तो उत्कालिक सूत्र का स्वाध्याय करे या सुने । अपवाद - प्रादेशिक काल शुद्ध हो, लेकिन अर्धरात्रिक शुद्ध न हो तो प्रवेदन करके स्वाध्याय करे । इस प्रकार वैरात्रिक शुद्ध न हो, लेकिन अर्ध रात्रिक शुद्ध हो तो अनुग्रह के लिए प्रवेदन करके स्वाध्याय करे । इस प्रकार वैरात्रिक शुद्ध हो और प्राभातिक शुद्ध न हो तो प्रवेदन करके स्वाध्याय करे ।। स्वाध्याय करने के बाद साधु सो जाए । इस प्रकार धीर पुरुष ने बताई हुई समाचारी बताई । [१००६-१००७] उपकार करे वो उपधि कहते है । वो द्रव्य से देह पर उपकार करती है और भाव से ज्ञान, दर्शन, चारित्र का उपकार करता है । यह उपधि दो प्रकार की है । एक ओघ उपधि और एक उपग्रह उपधि वो दोनों गिनती प्रमाण और नाप प्रमाण से दो प्रकार से आगे कहलाएंगी उस अनुसार समजना । ओघ उपधि यानि जिसे हमेशा धारण कर शके। उपग्रह उपधि - यानि जिस कारण से संयम के लिए धारण की जाए । [१००८-१०१०] जिनकल्पि की ओघ उपधि - बारह प्रकार से बताई है । पात्रा, झोली, नीचे का गुच्छा, पात्र केसरिका, पात्र-पडिलेहेन की मुहपत्ति, पड़ला, रजस्त्राण, गुच्छा, तीन कपड़े, ओघो और मुहपत्ति होती है | बाकी ११-१०-९-५-४-३ और अन्य जघन्य दो प्रकार से भी होते है । दो प्रकार में ओघो, मुहपत्ति, दो वस्त्र । पाँच प्रकार में ओघो, मुहपत्ति, तीन वस्त्र, नौ प्रकार में ओघो, मुहपत्ति, पात्र, झोली, नीचे का गुच्छा, पात्र-केसरिका, पड़ला, रजस्त्राण, गुच्छो और एक वस्त्र | ग्यारह प्रकार में ओघो, मुहपत्ति, पात्र, झोली, नीचे का गुच्छा, पात्र केसरिका, पड़ला, रजस्त्राण गुच्छा और दो वस्त्र ।। बारह प्रकार में ओघो, मुहपत्ति, पात्र, झोली, नीचे का गुच्छा, पात्र केसरिका, पड़ला,
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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