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________________ ओघनियुक्ति-८११ १६५ विधान नियुक्ति गाथाक्रम ८०३-८०४-८०५ में है ।) काउस्सग में गोचरी में जो किसी दोष लगे हो उसका चिन्तवन करना । उपाश्रय में से नीकले तब से लेकर उपाश्रय में प्रवेश करे तब तक के दोष मन में सोच ले । फिर गुरु को सुनाए । यदि गुरु स्वाध्याय करते हो, सो रहे हो, व्याक्षिप्त चित्तवाले हो, आहार या निहार करते हो तो आलोचना न करे । लेकिन गुरु शान्त हो व्याक्षिप्त चित्तवाले न हो तो गोचरी के सबी दोष की आलोचना करे । [८१२-८२२४ गोचरी की आलोचना करते नीचे के छह दोष नहीं लगाना चाहिए | नर्से - गोचरी आलोवतां हाथ, पाँव, भृकुटी, सिर, आँख आदि के विकार करना । वलं - हाथ और शरीर को मुड़ना, चलं - आलस करते आलोचना करनी या ग्रहण किया हो उससे विपरीत आलोचना करनी वो । भासं - गृहस्थ की बोली से आलोचना करनी वो । मूकं-चूपकी से आलोचना करनी । दडरं - चिल्लाकर आलोचना करनी । ऊपर के अनुसार दोष न ले । उस प्रकार आचार्य के पास या उनके संमत हो उनके पास आलोचना करे । समय थोड़ा हो, तो संक्षेप से आलोचना करे । फिर गोचरी बताने से पहले अपना मुँह, सिर प्रमार्जन करना और ऊपर नीचे आपास नजर करके फिर गोचरी बतानी। क्योंकि उद्यान बागीचा आदि में उतरे हो वहाँ ऊपर से फल, पुष्प आदि न गिरे, नीचे फल आदि हो, उसकी जयणा कर शके, आसपास में बिल्ली - कुत्ता हो तो तराप मार के न जाए। गोचरी बताकर अनजाने में लगे दोष की शुद्धि के लिए आँठ श्वासोच्छ्वास (एक नवकार का) काऊस्सग करे या अनुग्रह आदि का ध्यान करे । [८२३-८३९] फिर मुहूर्त मात्र स्वाध्याय करके फिर गुरु के पास जाकर कहे कि, प्राघुर्णक, तपस्वी, बाल आदि को आप गोचरी दो । गुरु महाराज दे या कहे कि, तुम ही उनको दो । तो खुद प्राघुर्णक आदि को और दुसरे साधु को भी निमंत्रणा करे । यदि वो ग्रहण करे, तो निर्जरा को फायदा मिले और ग्रहण न करे तो भी विशुद्ध परीणाम से निर्जरा मिले। यदि अवज्ञा से निमंत्रित करे तो कर्मबंध करे । पाँच भरत, पाँच ऐवत और पाँच महाविदेह । यह पन्नर कर्मभूमि में रहे साधु में से एक साधु की भी हीलना करने से सभी साधु की हीलना होती है । एक भी साधु की भक्ति करने से सभी साधु की भक्ति होती है । (सवाल) एक हीलना से सबकी हिलना और एक की भक्ति होकर सब की भक्ति कैसे होगी ? ज्ञान, दर्शन, तप और संयम साधु के गुण है । यह गुण जैसे एक साधु में है, ऐसे सभी साधु में है । इसलिए एक साधु की निंदा करने से सभी साधु के गुण की निंदा होती है और एक साधु की भक्ति, पूजा, बहुमान करने से पंद्रह कर्मभूमि में रहे सभी साधु की भक्ति, पूजा, बहुमान होता है । उत्तम गुणवान साधु की हमेशा वैयावच्च आदि करने से, खुद को सर्व प्रकार से समाधि मिलती है । वैयावच्च करनेवाले की एकान्त कर्म निर्जरा का फायदा मिलता है । साधु दो प्रकार के हो, कुछ मांडली में उपयोग करनेवाले हो और कुछ अलग-अलग उपयोग करनेवाले । जो मांडली में उपयोग करनेवाले हो, वो भिक्षा के लिए गए साधु आ जाए तब सबके साथ खाए। तपस्वी, नवदीक्षित, बाल, वृद्ध आदि हो वो, गुरु की आज्ञा पाकर अलग खा ले । इस प्रकार ग्रहण एषणा विधि धीर पुरुष ने की है ।। [८४०-८४५] ग्रास एषणा दो प्रकार से - द्रव्यग्रास एषणा, भाव ग्रास एषणा । द्रव्यग्रास एषणा - एक मछवारा मछलियाँ पकड़ने के गल-काँटे में माँसपिंड़ भराकर द्रह में डालता था । वह बात वो मछली को पता है, इससे वो मछली काँटा पर. का माँसपिंड़
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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