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________________ आवस्सयं-४/३१ १२३ करते है । [३२] उस धर्म की मैं श्रद्धा करता हूँ, प्रीति के रूप से स्वीकार करता हूँ, उस धर्म को ज्यादा सेवन की रुचि - अभिलाषा करता हूँ । उस धर्म की पालना-स्पर्शना करता हूँ । अतिचार से रक्षा करता हूँ । पुनः पुनः रक्षा करता हूँ । उस धर्म की श्रद्धा, प्रीति, रुचि, स्पर्शना, पालन और अनुपालन करते हुए मैं केवलिकथित धर्म की आराधना करने के लिए उद्यत हुआ हूँ और विराधना से अटका हुआ हूँ (उसी के लिए) प्राणातिपात रूपी असंयम का - अब्रह्म का · अकृत्य का-अज्ञान का - अक्रिया का - मिथ्यात्व का - अबोधि का और अमार्ग को पहचानकर-समजकर मैं त्याग करता हूँ। और संयम, ब्रह्मचर्य, कल्प, ज्ञान-क्रिया, सम्यक्त्व बोधि और मार्ग का स्वीकार करता हूँ। [३३] (सभी दोष की शुद्धि के लिए आगे कहा है कि) जो कुछ थोड़ा सा भी मेरी स्मृति में है, छद्मस्थपन से स्मृति में नहीं है, ज्ञात वस्तु का प्रतिक्रमण किया और सूक्ष्म का प्रतिक्रमण न किया उसके अनुसार जो अतिचार लगा हो वो सभी दिन सम्बन्धी अतिचार का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ । इस प्रकार अशुभ प्रवृत्ति का त्याग करके मैं तप-संयम रत साधु हूँ । समस्त प्रकार से जयणावाला हूँ, पाप से विरमित हूँ, वर्तमान में भी अकरणीय रूप से, पापकर्म के पच्चक्खाणपूर्वक त्याग किया है । नियाणा रहित हुआ हूँ, सम्यग् दर्शनवाला हुआ हूँ और माया मृषावाद से रहित हुआ हूँ । [३४] ढ़ाई द्वीप में यानि दो द्वीप, दो समुद्र और अर्ध पुष्करावर्त द्वीप के लिए जो ५-भारत, ५-ऐरावत, ५-महाविदेह रूप १५ कर्मभूमि में जो किसी साधु रजोहरण, गुच्छा और पात्र आदि को धारण करनेवाले, पाँच महाव्रत में परीणाम की बढ़ती हुई धारावाले, अठ्ठारह हजार शीलांग को धारण करनेवाले, अतिचार से जिसका स्वरूप दुषित नहीं हुआ है ऐसे निर्मल चारित्रवाले उन सबको मस्तक से, अंतःकरण से, मस्तक झुकाने के पूर्वक वंदन करता हूँ । [३५] सभी जीव को मैं खमाता हूँ । सर्व जीव मुझे क्षमा करो और सर्व जीव के साथ मेरी मैत्री है । मुझे किसी के साथ वैर नहीं है । [३६] उस अनुसार मैंने अतिचार की निन्दा की है आत्मसाक्षी से उस पाप पर्याय की निंदा - गहाँ की है, उस पाप प्रवृत्ति की दुगंछा की है, इस प्रकार से किए गए - हुए पाप व्यापार को सम्यक्, मन, वचन, काया से प्रतिकमता हुआ मैं चौबीस जिनवर को वंदन करता हूँ । अध्ययन-४-का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण (अध्ययन-५-कायोत्सर्ग) [३७] 'करेमि भंते' - पूर्व सूत्र-२ में बताए अनुसार अर्थ समजना । [३८] मैं कायोत्सर्ग में स्थिर होना चाहता हूँ । मैंने दिन के सम्बन्धी किसी भी अतिचार का सेवन किया हो । (यह अतिचार सेवन किस तरह से ? देखो सूत्र-१५) [३९] वो (इपिथिकी विराधना के परीणाम से उत्पन्न होनेवाला) पापकर्म का पूरी तरह से नाश करने के लिए, प्रायश्चित् करने से, विशुद्धि करने के द्वारा, शल्य रहित करने के द्वारा और तद् रूप उत्तरक्रिया करने के लिए यानि आलोचना-प्रतिक्रमण आदि से पुनः संस्करण करने के लिए मैं कायोत्सर्ग में स्थिर होता हूँ । “अन्नत्थ" के अलावा (इस पद से कायोत्सर्ग की स्थिरता विषयक अपवाद को बताते
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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