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________________ महानिशीथ-८/२/१५१६ ११३ उस अवसर पर दुसरे नजदीकी गाँव में से भोजन पानी ग्रहण करके उसी मार्ग उद्यान के सन्मुख आनेवाले मुनि युगल को देखा । उन्हें देखकर उनके पीछे वो दोनों पापी गए । उद्यान में पहुंचे तो वहाँ सारे गुण समूह को धारण करनेवाले चारज्ञानवाले काफी शिष्यगण से परिवरेल, देवेन्द्र और नरेन्द्र से चरणाविद में नमन कराते, सुगृहीत नामवाले जगाणंद नाम के अणगार को देखा । उन्हें देखकर उन दोनो ने सोचा कि यह महायशवाले मुनिवर के पास मेरी विशुद्धि कैसे हो उसकी माँग करूँ । ऐसा सोचकर प्रणाम करने के पूर्वक उस गण को धारण करनेवाले गच्छाधिपति के सामने यथायोग्य भूमि पर बैठा । उस गणस्वामीने सुज्ञशीव को कहा कि - अरे देवानुप्रिया शल्य रहित पाप की आलोचना जल्द करके समग्र पाप का अंत करनेवाले प्रायश्चित् कर । यह बालिका तो गर्भवती होने से उसका प्रायश्चित् नहीं है, कि जब तक उस बच्चे को जन्म नहीं देगी ।। हे गौतम ! उसके बाद अति महा संवेग की पराकाष्टा पाया हुआ वो सुज्ञशिव जन्म से लेकर तमाम पापकर्म की निःशल्य आलोचना देकर (बताकर) गुरु महाराजाने बताए घोर अति दुष्कर बड़े प्रायश्चित् का सेवन करके उसके बाद अति विशुद्ध परीणाम युक्त श्रममपन में पराक्रम करके छब्बीस साल और तेरह रात-दिन तक काफी घोर वीर उग्र कष्टकारी दुष्कर तपःसंयम यथार्थ पालन करके और एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह मास तक लगातार एकसाथ उपवास करके शरीर की टापटीप या ममता किए बिना उसने सर्व स्थानक में अप्रमाद रहित हमेशा रात-दिन हर समय स्वाध्याय ध्यानादिक में पराक्रम करके बाकी कर्ममल को भस्म करके अपूर्वकरण करके क्षपकश्रेणी लेकर अंतगड़ केवली होकर सिद्ध हुए । [१५१७] हे भगवंत ! उस प्रकार का घोर महापाप कर्म आचरण करके यह सुज्ञशीव जल्द थोड़े काल में क्यों निर्वाण पाया । हे गौतम ! जिस प्रकार के भाव में रहकर आलोयणा दी, जिस तरह का संवेग पाकर ऐसा घोर दुष्कर बड़ा प्रायश्चित् आचरण किया । जिस प्रकार काफी विशुद्ध अध्यवसाय से उस तरह का अति घोर वीर उग्र कष्ट करनेवाला अति दुष्कर तपसंयम की क्रिया में व्यवहार करते अखंड़ित-अपिराधित मूल उत्तरगुण का पालन करते निरतिचार श्रामण्य का निर्वाह करके जिस तरह के रौद्र ध्यान आर्तध्यान से मुक्त होकर राग-द्वेष, मोह, मिथ्यात्व, मद, भय, गाव आदि दोष का अन्त करनेवाले, मध्यस्थ भाव में रहे, दीनता रहित मानसवाले सुज्ञशीव श्रमण ने बारह साल की संलेखना करके पादपोपगमन अनसन अंगीकार करके उस तरह के एकान्त शुभ अध्यवसाय से केवल एक ही सिद्धि न पाए, लेकिन यदि शायद दुसरों के किए कर्म का संक्रम कर शकता हो तो सर्वे भव्य सत्त्व के समग्र कर्म का क्षय और सिद्धि पाए । लेकिन दुसरों के किए कर्म के संक्रम कभी किसी का नहीं होता । जो कर्म जिसने उपार्जन किया हो वो उसको ही भुगतना चाहिए । हे गौतम ! जब योग का निरोध करनेवाले बने तब समग्र लेकिन आँठ कर्मराशि के छोटे काल के विभाग से ही नष्ट करनेवाले बने । समग्र कर्म आने के और अच्छी तरह से बँध करनेवाले और योग का निरोध करनेवाले का कर्मक्षय देखा है, लेकिन कालगिनती से कर्मक्षय नहीं देखा । कहा है कि_ [१५१८-१५२३] काल से तो कर्म खपाता है, काल के द्वारा कर्म बाँधता है, एक बाँधे, एक कर्म का क्षय करे, हे गौतम ! समय तो अनन्त है, योग का निरोध करनेवाला कर्म 118
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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