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________________ ६८ किया है इसलिए तुम वीर हो । [१६] प्रथम व्रत ग्रहण के दिन ईन्द्र के विनयकरण की इच्छा का निषेध करके तुम उत्तम मुनि हुए इसलिए तुम महावीर हो । आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद [१७] चल रहे या नहीं चल रहे प्राणी ने आपको दुभाए या भक्ति की, आक्रोश किया या स्तुति की । शत्रु या मित्र बने, तुमने करुणा रस से मन को रंजित किया इसलिए तुम परमकारुणिक (करुणावाले) हो । [१८] दुसरों के जो भाव-सद्भाव या भावना जो हुए जो होंगे या होते है उस ज्ञान द्वारा तुम जानते हो कहते हो इसलिए तुम सर्वज्ञ हो । [१९] समस्त भुवन में अपने-अपने स्वरूप में रहे सामान्य, बलवान् या कमजोर को (तुम देखते हो ) इसलिए तुम सर्वदर्शी हो । [२०] कर्म और भव का पार पाया है या श्रुत समान जलधि को जानकर उसका सर्व तरह से पार पाया है इसलिए तुमको पारग कहा है । - - [२१] वर्तमान, भावि और भूतवर्ती जो चीज हो उसको हाथ में रहे आँबला के फल की तरह तुम जानते हो इसलिए त्रिकालविद् हो । [२२] अनाथ के नाथ हो । भयंकर गहन भवन में रहे हुए जीव को उपदेश दान से मार्ग समान नयन देते हो इसलिए तुम नाथ हो । [२३] प्राणीओ के चित्त में प्रवेश करनेवाली अच्छी तरह की चीज का राग-रति उस रागरूप को पुनः दोष रूप से समजाया है या विपरीत किया है मतलब कि राग दूर किया है। इसलिए वीतराग हो । [२४] कमल समान आसन है इसलिए हरि-इन्द्र हो । सूर्य या इन्द्र प्रमुख के मान का खंडन किया है इसलिए शंकर हो । हे जिनेश्वर एक समान सुख आश्रय तुमसे मिलते है वो भी तुम ही हो । [२५] जीव का मर्दन, चूर्णन, विनाश भक्षण, हत्या, हाथ पाँव का विनाश, नाखून, होठ का विदारण, इस कार्य का जिसका लक्ष्य या आश्रयज्ञान है । [२६] अन्य कुटिलता, त्रिशुल, जटा, गुरूर, नफरत, मन में असूया गुणाकारी की लघुता ऐसे कईं दोष हो । [२७] ऐसे बहुरूप धारी देव तुम्हारे पास बँसते है तो भी उसे विकाररहित किए, इसलिए तुम वीतराग हो । [२८] सर्वद्रव्य के प्रति पर्याय की अनन्त परिणति स्वरूप को एक साथ और त्रिकाल संस्थित रूप से जानते हो इसलिए तुम केवलि हो । [२९] उस विषय से तुम्हारी अप्रतिहत, अनवरत, अविकल शक्ति फैली हुई है । रागद्वेष रहित होकर चीजों को जाना है । इसलिए केवलि कहलाते हो । [३०] जो संज्ञी पंचेन्द्रिय को त्रिभुवन शब्द द्वारा अर्थ ग्राह्य होने से उनको सद्धर्म में जो जोडते हो अर्थात् अपनी वाणी से धर्म में जुड़ते है इसलिए तुम त्रिभुवन गुरु हो । [३१] प्रत्येक सूक्ष्म जीव को बड़े दुःख से बचानेवाले और सबके हितकारी होने से तुम सम्पूर्ण हो ।
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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