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________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद ४२ और जो प्रवचन का सार है, वही परमार्थ है ऐसे मानना चाहिए । [७८] प्रवचन के परमार्थ को अच्छी तरह से ग्रहण करनेवाला पुरुष ही बँध और मोक्ष को अच्छी तरह जानकर वो ही पुरातन कर्म का क्षय करते है । [ ७९] ज्ञान से सम्यक् क्रिया होती है और क्रिया से ज्ञान आत्मसात् होता है । इस तरह ज्ञान और सम्यग् क्रिया के योग से भाव चारित्र की विशुद्धि होती है । [८०] ज्ञान प्रकाश करनेवाला है, तप शुद्धि करनेवाला है और संयम रक्षण करनेवाला है, इस तरह ज्ञान, तप और संयम तीनो के योग से जिन शासन में मोक्ष कहा है । [८१] जगत के लोग चन्द्र की तरह बहुश्रुत - महात्मा पुरुष के मुख को बार-बार देखता है । उससे श्रेष्ठतर, आश्चर्यकारक और अति सुन्दर चीज कौन-सी है ? [८२] चन्द्र से जिस तरह शीतल - ज्योत्सना नीकलती है, और वो सब लोगों को खुशआल्हादित करती है । उस तरह गीतार्थ ज्ञानी पुरुष के मुख से चन्दन जैसे शीतल जिनवचन नीकलते है, जो सुनकर मानव भवाटवी का पार पा लेते है । [८३] धागे से पिराई हुई सूई जिस तरह कूड़े में गिरने के बाद नहीं गूम होती वैसे आगम का ज्ञानी जीव संसार अटवी में गिरने के बाद भी गूम नहीं होता । [२४] जिस तरह धागे के बिना सुई नजर में न आने से गुम हो जाती है । वैसे सूत्रशास्त्र बोध बिना मिथ्यात्व से घैरा जीव भवाटवी में खो जाता है । [८५] श्रुतज्ञान द्वारा परमार्थ का यथार्थ दर्शन होने से, तप और संयम गुण को जीवनभर अखंड रखने से मरण के वक्त शरीर संपत्ति नष्ट हो जाने से जीव को विशिष्ट गतिसद्गति और सिद्धगति प्राप्त होती है । [८६] जिस तरह वैद्य वैदक शास्त्र के ज्ञान द्वारा बिमारी का निदान जानते है, वैसे श्रुतज्ञान द्वारा मुनि चारित्र की शुद्धि कैसे करना, वो अच्छी तरह जानत है । [८७] वैदक ग्रंथ के अभ्यास बिना जैसे वैद्य व्याधि का निदान नहीं जानता, वैसे आगमिक ज्ञान से रहित मुनि चारित्र शुद्धि का उपाय नहीं जान शकता । [८] उस कारण से मोक्षाभिलाषी आत्मा ने श्री तीर्थंकर प्ररूपित आगम अर्थ के साथ पढने में सतत उद्यम करना चाहिए | [८९] श्री जिनेश्वर परमात्मा के बताए हुए बाह्य और अभ्यंतर तप के बारह प्रकारो में स्वाध्याय समान अन्य कोई तप नहीं है और होगा भी नहीं । [१०] ज्ञानाभ्यास की रुचिवाले को बुद्धि हो या न हो लेकिन उद्यम जरूर करना चाहिए | क्योंकि बुद्धि ज्ञानावरणीयादि कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होती है । [ ९१] असंख्य जन्म के उपार्जन किए कर्म को उपयोग युक्त आत्मा प्रति समय खपाता है लेकिन स्वाध्याय से कईं भव के संचित कर्म पलभर में खपाते है । [१२] तिर्यंच, सुर, असुर, मानव, किन्नर, महोरग और गंधर्व सहित सर्व छद्मस्थ जीव केवली भगवान को पूछता हैं, यानि कि लोक में छद्मस्थ जीव को अपनी जिज्ञासा के समाधान के लिए पूछने को उचित स्थान केवल एक केवलज्ञानी है । [९३] जो किसी एक पद के श्रवण- चिन्तन से मानव वैराग्य पाता है वो एक पद भी सम्यग्ज्ञान है । क्योंकि जीससे वैराग्य प्राप्त हो, वो ही उसका सच्चा ज्ञान है ।
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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