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________________ महानिशीथ-३/-/५८५ २२७ जाति के कमल से उसकी पूजा करके अपने अपने भवन में जिस तरह स्तुति करते थे । ( वो सर्व वृतांत महा विस्तार से अरिहंत चरित्र नाम) अंतगड़ दशा से जानना । [५८६-५८९] यहाँ अभी जो चालु अधिकार है उसे छोड़कर यदि यह कहा जाए तो विषयान्तर असंबद्धता और ग्रंथ का लम्बा विस्तार हो जाए । प्रस्ताव न होने के बावजूद भी इतना भी हमने निरुपण किया उसमें अति बडा कारण उपदेशीत है जो यहाँ बताया है । उन भव्य सत्त्व के उपकार के लिए कहा गया है । अच्छे वसाणा से मिश्रित मोदक का जिस तरह भक्षण किया जाता है, वैसे लोगों में अति बड़ी मानसिक प्रिती उत्पन्न होती है । उस तरह यहाँ अवसर न होने के बावजूद भी भक्ति के बोझ से निर्भर और निजगुण ग्रहण करने में खींचे हुए चित्तवाले भवात्मा को बड़ा हर्ष उत्पन्न होता है । [५९०] यह पंचमंगल महाश्रुतस्कंध नवकार का व्याख्यान महा विस्तार से अनन्तगम और पर्याय सहित सूत्र से भिन्न ऐसे नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि से अनन्त ज्ञान-दर्शन धारण करनेवाले तीर्थंकर ने जिस तरह व्याख्या की थी । उसी तरह संक्षेप से व्याख्यान किया जाता था । लेकिन काल की परिहाणी होने के दोष से वो नियुक्ति भाष्य, चूर्णिका विच्छेद पाकर इस तरह का समय-काल बह गया था, तब महा ऋद्धि लब्धि, संपन्न पदानुसारी लब्धिबाले व्रजस्वामी नाम के बारह अंग रूप श्रुत को धारण करनेवाले उत्पन्न हुए... उन्होंने पंचमंगल महाश्रुतस्कंध का यह उद्धार मूल सूत्र के बीच लिखा । गणधर भगवंत ने मूलसूत्र को सूत्रपन से, धर्म तीर्थंकर अरहंत भगवंत ने अर्थ से बताया । तीन लोक से पूजित वीर जिनेन्द्र ने इसकी प्ररूपणा की इस प्रकार से वृद्ध आचार्य का सम्प्रदाय है । [५९१] यहाँ जहाँ जहाँ पद पद के साथ जुड़े हो और लगातार सूत्रालापक प्राप्त न हो वहाँ श्रुतधर ने लहीयाओं ने झूठ लिखा है । ऐसा दोष मत देना लेकिन जो किसी इस अचिन्त्य चिन्तामणी और कल्पवृक्ष सम्मान महानिशिथ श्रुतस्कंध की पूर्वादर्श पहले की लिखी हुई प्रति थी उसमें ही ऊधई आदि जीवांत से खाकर उस कारण से टुकड़ेवाली प्रत हो गई । काफी पत्ते सड़ गए तो भी अति अतिशयवाला बड़े अर्थ से भरपूर यह महानिशीथ श्रुतस्कंध है । समग्र प्रवचन के परम सारभूत श्रेष्ठ तत्त्वपूर्ण महा, अर्थ, गर्भित है ऐसा जानकर प्रवचन के वात्सल्य से कई भव्यजीव को उपकारमंद होंगे ऐसा मानकर और अपने आत्मा के हित के लिए आचार्य हरिभद्रसूरी ने जो उस आदर्श मे लिखा, वो सर्व अपनी मति से शुद्ध करके लिखा है । दुसरे भी आचार्य - सिद्धसेन दिवाकर, वृद्धवादी, यक्षसेन, देवगुप्त, यशोवर्धन, क्षमाश्रमण के शिष्य रविगुप्त, नेमिचन्द्र, जिनदासगणि, क्षमक, सत्यर्षी आदि युग प्रधान श्रुतधर ने उसे बहुमान्य रखा है । [५९२] हे गौतम ! इस प्रकार आगे कहने के अनुसार विनय-उपधान सहित पंचमंगल महा-श्रुतस्कंध नवकार को पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी से स्वर, व्यंजन, मात्रा, बिन्दु और पदाक्षर से शुद्ध तरह से पढ़कर उसे दिल में स्थिर और परिचित करके महा विस्तार से सूत्र और अर्थ जानने के बाद क्या पढ़ना चाहिए ? हे गौतम! उसके बाद इरियावाहिय सूत्र पढ़ना चाहिए ।
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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