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________________ महानिशीथ-३/-/५१९ २२३ [५१९-५२०] द्रव्यस्तव और भावस्तव इन दोनों में भाव-स्तव बहुत गुणवाला है । "द्रव्यस्तव" काफी गुणवाला है ऐसा बोलनेवाले की बुद्धि में समजदारी नहीं है । हे गौतम ! छ काय के जीव का हित-रक्षण हो ऐसा व्यवहार करना । यह द्रव्यस्तव गन्ध पुष्पादिक से प्रभुभक्ति करना उन समग्र पाप का त्याग न किया हो वैसे देश-विरतिवाले श्रावक को युक्त माना जाता है । लेकिन समग्र पाप के पच्चक्खाण करनेवाले संयमी साधु को पुष्पादिक की पूजा समान, द्रव्यस्तव करना कल्पता नहीं । [५२१-५२२] हे गौतम ! जिस कारण से यह द्रव्यस्तव और भावस्तव रूप दोनो पूजा बत्तीस इन्द्र ने की है तो करनेलायक है ऐसा शायद तुम समज रहे हो तो उसमें इस प्रकार समजना । यह तो केवल उनका विनियोग पाने की अभिलाषा समान भाव-स्तव माना है। अविरति ऐसे इन्द्र को भावस्तव (छ काय जीव की त्रिविध त्रिविध से दया स्वरूप) नामुमकीन है दशार्णभद्र राजा ने भगवंत का आडंबर से सत्कार किया वो द्रव्यपूजा और इन्द्र के सामने मुकाबले में हार गए तब भावस्तव समान दीक्षा अंगीकार की । तब इन्द्र को भी हराया : वो दृष्टांत का यहाँ लागु करना, इसलिए भाव स्तव ही उत्तम है । [५२३-५२६] चक्रवर्ती, सूर्य, चन्द्र, दत्त, दमक आदि ने भगवान को पूछा कि क्या सर्व तरह की ऋद्धि सहित कोई न कर शके उस तरह भक्ति से पूजा-सत्कार किए वो क्या सर्व सावध समजे? या त्रिविध विरतिवाला अनुष्ठान समजे या सर्व तरह के योगवाली विरती के लिए उसे पूजा माने ? हे भगवंत, इन्द्र ने तो उनकी सारी शक्ति से सर्व प्रकार की पूजा की है । हे गौतम ! अविरतिवाले इन्द्र ने उत्तम तरह की भक्ति से पूजा सत्कार किए हो तो भी वो देश विरतिवाले और अविरतिवाले के यह द्रव्य और भावस्तव ऐसे दोनों का विनियोग उसकी योग्यतानुसार जुड़ना । [५२७] हे गौतम ! सर्व तीर्थंकर भक्त ने समग्र आँठ कर्म का निर्मूलक्षय करनेवाले ऐसे चारित्र अंगीकार करने समान भावस्तव का खुद आचरण किया है । . [५२८-५३०] भव से भयभीत ऐसे उनको जहाँ-जहाँ आना, जन्तु को स्पर्श आदि प्रपुरुषन-विनाशकारण प्रवर्तता हो, स्व-पर हित से विरमे हुए हो उनका मन वैसे सावध कार्य में नहीं प्रवर्तता । इसलिए स्व-पर अहित से विरमे हुए संयत को सर्व तरह से सुविशेष परम सारभूत ज्यादा लाभप्रद ऐसे ऐसे अनुष्ठान का सेवन करना चाहिए । मोक्ष-मार्ग का परम सारभूत विशेषतावाला एकान्त करनेवाला पथ्य सुख देनेवाला प्रकट परमार्थ रूप कोई अनुष्ठान हो तो केवल सर्व विरति समान भावस्तव है । वो इस प्रकार [५३१-५३७] लाख योजन प्रमाण मेरु पर्वत जैसे ऊँचे, मणिसमुद्र से शोभायमान, सुवर्णमय, परम मनोहर, नयन और मन को आनन्द देनेवाला, अति विज्ञानपूर्ण, अति मजबूत, दिखाई न दे उस तरह जुड़ दिया हो ऐसा, अति घिसकर मुलायम बनाया हुआ, जिसके हिस्से अच्छी तरह से बाँटे गए है ऐसा कई शिखरयुक्त, कई घंट और ध्वजा सहित, श्रेष्ठ तोरण युक्त कदम-कदम पर आगे-आगे चलने से जहाँ (पर्वत) या राजमहल समान शोभा दिखाई देती हो। वैसे, अगर, कपुर, चंदन आदि का बनाया हुआ धूप जो अग्नि में डालने से महकता हो, कई
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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