SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महानिशीथ-२/३/४६३ २११ [४६३-४६५] हे भगवंत ! जो परमार्थ को जाननेवाले होते है, तमाम प्रायश्चित् का ज्ञाता हो उन्हें भी क्या अपने अकार्य जिस मुताबिक हुए हो उस मुताबिक कहना पड़े ? हे गौतम ! जो मानव तंत्र मंत्र से करोड़ को शल्य बिना और इंख रहित करके मुर्छित को खड़ा कर देते है, ऐसा जाननेवाले भी इंखवाले हुए हो, निश्चेष्ट बने हो, युद्ध में बरछी के घा से घायल - हुए हो उन्हें दुसरे शल्य रहित मूर्छा रहित बनाते है । उसी तरह शील से उज्ज्व ल साधु भी निपुण होने के बावजुद भी यथार्थ तरह से दुसरे साधु से अपना पाप प्रकाशित करे। जिस तरह अपना शिष्य अपने पास पाप प्रकट करे तब वो विशुद्ध होते है । वैसे खुद को शुद्ध होने के लिए दुसरों के पास अपनी आलोचना प्रायश्चित् विधिवत् करना चाहिए । - अध्ययन-२-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण [४६६] यह “महानिसीह" सूत्र के दोनों अध्ययन की विधिवत् सर्व श्रमण (श्रमणी) को वाचना देनी यानि पढाना । (अध्ययन-३-कुशील-लक्षण) [४६७] जब यह तीसरा अध्ययन चारों को (साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका को) सुना शके उस प्रकार का है । क्योंकि अति बड़े और अति श्रेष्ठ आज्ञा से श्रद्धा करने के लायक सूत्र और अर्थ है । उसे यथार्थ विधि से उचित शिष्य को देना चाहिए । [४६८-४६९] जो कोई इसे प्रकटपन से प्ररूपे, अच्छी तरह से बिना योग करनेवाले को दे, अब्रह्मचारी से पढ़ाए, उद्देशादिक विधि रहित को पढ़ाए वो उन्माद, पागलपन पाए या लम्बे-अरसे की बिमारी-आतंक के दुःख भुगते, संयम से भ्रष्ट हो, मरण के वक्त आराधना नहीं पाते । [४७०-४७३] यहाँ प्रथम अध्ययन में पूर्व विधि बताई है । दुसरे अध्ययन में इस तरह का विधि कहना और बाकी के अध्ययन की अविधि समजना, दुसरे अध्ययन में पाँच आयंबिल उसमें नौ उदेशा होते है । तीसरे में आँठ आयंबिल और साँत उदेशो, जिस प्रकार तीसरे में कहा उस प्रकार चौथे अध्ययन में भी समजना, पाँचवे अध्ययन में छ आयंबिल, छठे में दो, साँतवे में तीन, आँठवे में दश आयंबिल ऐसे लगातार आयंबिल तप संलग्न आऊत्तवायणा सहित आहार पानी ग्रहण करके यह महानिशीथ नाम के श्रेष्ठ श्रुतस्कंध को वहन धारण करना चाहिए । [४७४] गम्भीरतावाले महा बुद्धिशाली तप के गुण युक्त अच्छी तरह से परीक्षा में उत्तीर्ण हुए हो, काल ग्रहण विधि की हो उन्हें वाचनाचार्य के पास वाचना ग्रहण करनी चाहिए। [४७५-४७६] हमेशा क्षेत्र की शुद्धि सावधानी से जब करे तब यह पढ़ाना । वरना किसी क्षेत्र देवता से हैरान हो । अंग और उपांग आदि सूत्र का यह सारभूत श्रेष्ठ तत्त्व है । महानिधि से अविधि से ग्रहण करने में जिस तरह धोखा खाती है वैसे इस श्रुतस्कंध से अविधि से ग्रहण करने में ठगाने का अवसर उत्पन्न होता है । [४७७-४७८] या तो श्रेयकारी-कल्याणकारी कार्य कईं विघ्नवाले होते है । श्रेय में भी श्रेय हो तो यह श्रुतस्कंध है, इसलिए उसे निर्विघ्न ग्रहण करना चाहिए । जो धन्य है,
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy