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________________ महानिशीथ-२/३/३८७ २०१ हुई - सोई हुई या चलती हुई, सर्व लोग से दिखनेवाली झगमग करते सूर्य की किरणों के समूह से दश दिशामें तेज राशि फैल गई है तो भी जैसे खुद ऐसा मानती हो कि सर्व दिशा में शून्य अंधेरा ही है । रागान्ध और कामान्ध बनी खुद जैसे ऐसा न मानती हो कि जैसे कोई देखता या जानता नहीं । जब कि वो रागांध हुई अति महान भारी दोषवाले व्रतभंग, शीलखंडन, संयम विराधना, परलोक भय, आज्ञा का भंग, आज्ञा का अतिक्रमण, संसार में अनन्त काल तक भ्रमण करने समान भय नहीं देखती या परवा नहीं करती । न देखनेलायक देखती है । सब लोगों को प्रकट दिखनेवाला सूर्य हाजिर होने के बाद भी सर्व दिशा में जैसे अंधेरा फैला हो ऐसा मानते है । जिसका सौभाग्यातिशय सर्वथा ऊड़ गया है, मुँह लटकानेवाली, लालीमावाली थी वो फीके-मुझ गए, दुर्दशनीय नहीं देखनेलायक, वदनकमलवाली होती है । उस वक्त काफी तड़पती थी । और फिर उसके कमलपुर, नितम्ब, वत्सप्रदेश, जघन, बाहुलतिका, वक्षस्थल, कंठप्रदेश धीरे-धीरे स्फुरायमान होते है । उसके बाद गुप्त और प्रकट अंग विकारवाले बना देते है । उसके अंग सर्व उपांग कामदेव के तीर से भेदित होकर जर्जरित होते है । पूरे देह पर का रोमांच खड़ा होता है, जितने में मदन के तीर से भेदित होकर शरीर जर्जरित होता है । उतने में शरीर में रही धात कछ चलायमान होती है उसके बाद शरीर पुदगल नितम्ब साँथल बाहुलतिका कामदेव के तीर से पीड़ित होती है । शरीर पर का काबू स्वाधीन नहीं रहता । नितम्ब और शरीर को महा मुसीबत से धारण कर शकते है । और ऐसा करते हुए अपने शरीर अवस्था की दशा खुद पहचान या समज नहीं शकती । वैसी अवस्था पाने के बाद बारह समय में कुछ शरीर से निश्चेष्ट दशा हो जाती है । साँस प्रतिस्खलित होती है । फिर मंद-मंद साँस ग्रहण करते है । इस प्रकार कही हुई इतनी विचित्र तरह की अवस्था काम की चेष्टा पाती है । और वो जैसे किसी पुरुष या स्त्री को ग्रह का वलगाड़ चिपका हो । होशियार पिशाच ने शरीर में प्रवेश किया हो तब चाहे कुछ भी बोला करे । इधर-ऊधर का मन चाहे ऐसा बकवास करे उसकी तरह कामपिशाच या ग्रस्त होनेवाली स्त्री भी कामावस्था में चाहे वैसे असंबद्ध वचन बोले कामसमुद्र के विषमावर्त में भटकती, मोह उत्पन्न करनेवाले काम के वचन से देखे हुए या अनदेखे मनोहर रुपवाले या बगैर रूपवाले, जवान या बुढे पुरुष की खीलती जवानीवाली या महा पराक्रमी हो वैसे को हीन सत्त्ववाले या सत्पुरुप को या दुसरे किसी भी निन्दित अधम हीन जातिवाले पुरुष को काम के अभिप्राय से भय पानेवाली सिकुड़कर आमंत्रित करके बुलाती है ऐसे संख्याता भेदवाले रागयुक्त स्वर और कटाक्षवाली नजर से उस पुरुष को बुलाती है, उसका राग से निरीक्षण करती है । उस वक्त नारकी और तिर्यंच दोनों गति को उचित असंख्यात अवसर्पिणी उत्सर्पिणी करोड़ लाख साल या कालचक्र प्रमाण की उत्कृष्ट-दशावाले पाप कर्म उपार्जन करे यानि कर्म बाँधे, लेकिन कर्मबंध स्पृष्ट न करे । अब वो जिस वक्त पुरुष के शरीर के अवयव को छूने के लिए सन्मुख हो, लेकिन अभी स्पर्श नहीं किया उस वक्त कर्म की दशा बद्ध स्पृष्ट करे। लेकिन बद्ध स्पृष्ट निकाचित न करे ।
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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