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________________ महानिशीथ-१/-/२१७ १८९ २१७-२१८] कषाय सहित क्रूर भाव से जो कलुषित भाषा बोले, पापवाले दोषयुक्त वचन से जो उत्तर दे, वो भी मृषा-असत्य वचन जानना चाहिए । रज-धूल से युक्त बिना दिया हुआ जो ग्रहण करे वो चोरी । हस्तकर्म, शब्द आदि विषय का सेवन वो मैथुन, जिस चीज में मूर्छा, लालच, कांक्षा, ममत्वभाव हो वो परिग्रह उणोदरी न करना, आकंठ भोजन करना उसे रात्रि भोजन कहा है । [२१९-२२१] इष्ट शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श में राग और अनिष्ट शब्द आदि में द्वेष, पलभर के लिए भी मुनि न करे, चार कषाय चतुष्क को मन में ही उपशान्त कर दे, दुष्ट मन, वचन, काया के दंड़ का परिहार करे, अप्रासुक-सचित्त पानी का परिभोग न करे-उपभोग न करे, बीज-स्थावरकाय का संघट्ट-स्पर्श न करे... [२२२-२२४]...ऊपर कहे गए इस महापाप का त्याग न करे तब तक शल्यरहित नहीं होता । इस महा-पाप में से शरीर के लिए एक छोटा-सूक्ष्म पाप करे तब तक वो मुनि शल्यरहित न बने । इसलिए गुरु समक्ष आलोचना यानि पाप प्रकट करके, गुरु महाराज ने दिया प्रायश्चित् करके, कपट-दंभ-शल्य रहित तप करके जो देव या मानव के भव में उत्पन्न हो वहाँ उत्तम जाति, उत्तम समृद्धि, उत्तम सिद्धि, उत्तम रूप, उत्तम सौभाग्य पाए...यदि उस भवे सिद्धि न पाए तो यह सब उत्तम सामग्री जुरुर पाए...उस मुताबिक भगवंत के पास जो मैंने सुना वो कहता हूँ। [२२५] यहाँ श्रुतधर को कुलिखित का दोष न देना । लेकिन जो इस सूत्र की पूर्व की प्रति लिखी थी । उसमें ही कहीं श्लोकार्ध भाग, कहीं पद-अक्षर, कहीं पंक्ति, कहीं तीनतीन पन्ने ऐसे काफी ग्रन्थ हिस्सा क्षीण हुआ था । (अध्ययन-२-कर्मविपाक-प्रतिपादन) उद्देशक-१ [२२६-२२७] हे गौतम ! सर्व भाव सहित निर्मूल शल्योद्धार करके सम्यग् तरह से यह प्रत्यक्ष सोचो कि इस जगत में जो संज्ञी हो, असंज्ञी हो, भव्य हो या अभव्य हो लेकिन सुख के अर्थी किसी भी आत्मा तिर्की, उर्ध्व अधो, यहाँ वहाँ ऐसे दश दिशा में अटन करते है । [२२८-२२९] असंज्ञी जीव दो तरह के जानना, विकलेन्द्री यानि एक, दो, तीन, चार इतनी इन्द्रियवाले और एकेन्द्रिय, कृमि, कुंथु, माली उस क्रम से दो, तीन, चार इन्द्रियवाले विकलेन्द्रिय जीव और पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति वो स्थावर एकेन्द्रिय असंज्ञी जीव है । पशु, पंछी, नारकी, मानव, देव वो सभी संज्ञी है । और वो मर्यादा में-सर्वजीव में भव्यता और अभव्यता होती है । नारकी में विकलेन्द्रि और एकेन्द्रियपन नहीं होता । [२३०-२३१] हमें भी सुख मिले (ऐसी इच्छा से) विकलेन्द्रिय जीव को गर्मी लगने से छाँव में जाता है और ठंड लगे तो गर्मी में जाता है । तो वहाँ भी उन्हें दुःख होता है । अति कोमल अंगवाले उनका तलवा पलभर गर्मी या दाह को पलभर ठंडक आदि प्रतिकूलता सहन करने के लिए समर्थ नहीं हो शकते । [२३२-२३३] मैथुन विषयक संकल्प और उसके राग से-मोह से अज्ञान दोष से
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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