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________________ महानिशीथ - १/-/१०५ उसके आलम्बन से प्रायश्चित् न करे आलोचना करनेवाला साधु सूना - अनसुना करे । [१०६ - १०८] तुष्टि करनेवाले छूटे-छूटे प्रायश्चित् मैं नहीं करूँगा, लोगों को खुश करने के लिए जह्वा से प्रायश्चित् नहीं करूँगा ऐसा कहकर प्रायश्चित् न करे । प्रायश्चित् अपनाने के बाद लम्बे अरसे के बाद उसमें प्रवेश करे - अर्थात् आचरण करे या प्रायश्चित् कवुल करने के बाद अन्यथा - अलग ही कुछ करे । निर्दयता से बार-बार महापाप का आचरण करे | कंदर्प यानि कामदेव विषयक अभिमान “चाहे कितना भी प्रायश्चित् दे तो भी मैं करने के लिए समर्थ हूँ" ऐसा गर्व करे । और फिर जयणा रहित सेवन करे तो सूनाअनसुना करके प्रायश्चित करे । १८३ [१०९-११३] किताब में देखकर वहां बताया हुआ प्रायश्चित् करे, अपनी मति कल्पना से प्रायश्चित् करे । पूर्व आलोचना की हो उस मुताबिक प्रायश्चित् कर ले... जातिमद, कुलमद, जातिकुल उभयमद, श्रुतमद, लाभमद, ऐश्वर्यमद, तपमद, पंड़िताई का मद, सत्कार मद आदि में लुब्ध बने । गाव से उत्तेजित होकर (आलोचना करे ) मैं अपूज्य हूँ । एकाकी हूँ ऐसा सोचे । मैं महापापी हूँ ऐसी कलुषितता से आलोचना करे । दुसरों के द्वारा या अविनय से आलोचना करे । अविधि से आलोचना करे । इस प्रकार कहे गए या अन्य वैसे ही दुष्ट भाव से आलोचना करे । [११४ - ११६] हे गौतम! अनादि अनन्त काल से भाव - दोष सेवन करनेवाले आत्मा को दुःख देनेवाले साधु नीचे भीतर साँतवी नरक भूमि तक गए है... हे गौतम ! अनादि अनन्त ऐसे संसार में ही साधु शल्य सहित होते है । वो अपने भाव - दोष समान विरस कटु फल भुगतते है । अभी भी शल्य से शल्यित होनेवाले वो भावि में भी अनन्तकाल तक विरस कटु फल भुगतते रहेंगे । इसलिए मुनि को जरा भी शल्यधारण नहीं करना चाहिए । [११७] हे गौतम ! श्रमणी की कोई गिनती नहीं जो कलुषिततारहित, शल्यरहित, विशुद्ध, शुद्ध, निर्मल, विमल मानसवाली होकर, अभ्यंतर विशोधि से आलोचना करके साफ अतिचार आदि सर्व भावशल्य को यथार्थ तपोकर्म सेवन करके, प्रायश्चित् पूरी तरह आचरण करके, पाप कर्म के मल के लेप समान कलंक धोकर साफ करके उत्पन्न किए दिव्य - उत्तम केवलज्ञानवाली, महानुभाग, महायशा, महासत्त्व, संपन्ना, सुग्रहित, नामधारी, अनन्त उत्तम सुखयुक्त मोक्ष पाई हुई है । [११८-१२०] हे गौतम ! पुण्यभागी ऐसी कुछ साध्वी के नाम कहते है कि जो आलोचना करते हुए केवलज्ञान पाए हुए होती है... अरेरे मैं पापकर्म करनेवाली पापिणी- पापमती वाली हूँ । सचमुच पापीणी में भी अधिक पाप करनेवाली, अरेरे मैंने काफी दुष्ट चिन्तवन किया, क्योंकि इस जन्म में मुजे स्त्रीभाव पैदा हुआ तो भी अब घोर, वीर, उग्र कष्टदायक तप संयम धारण करूँगी । 1 [१२१-१२५] अनन्ती पापराशि इकट्ठी हो तब पापकर्म के फल समान शुद्ध स्त्रीपन मिलता है । अब स्त्रीपन के उचित इकट्ठे हुए पापकर्म के समूह को ऐसे पतले करूँ कि जिससे स्त्री न बनू और केवल - ज्ञान पाऊँ... नजर से भी अब शीयल खंड़न नहीं करूँगी, अब मैं श्रमण- केवली बनूँगी । अरेरे! पूर्वे मन से भी मैंने कोई आहट्ट दोहट्ट अति दुष्ट सोचा होगा। उसकी आलोचना करके मैं जल्द उसकी शुद्धि करूँगी और श्रमणी - केवली बनूँगी । मेरा रूप
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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