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________________ १७६ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद आशातना अनवस्थाप्य प्रायश्चित् जघन्य से छ मास और उत्कृष्ट से एक साल, पड़िसेवण अनवस्थाप्य प्रायश्चित् जघन्य से एक साल उत्कृष्ट से बारह शाल । [९२] उत्सर्ग से पड़िसेवण कारण से बारह साल का अनवस्थाप्य प्रायश्चित् आए और अपवाद से अल्प या अल्पतर प्रायश्चित् दो या सर्वथा छोड़ दो । [९३] वो (अनवस्थाप्य प्रायश्चित् सेवन करके ) खुद शैक्ष को भी वंदन करे | लेकिन उसे कोई वंदन न करे, वो प्रायश्चित् सेवन करके परिहार तप का अच्छी तरह से सेवन करे, उसके साथ संवास हो शके लेकिन उसके साथ संवाद या वंदन आदि क्रिया न हो शके । ( अब पारंचित प्रायश्चित्त कहते है ।) [१४] तिर्थंकर, प्रवचन, श्रुत, आचार्य, गणधर, महर्द्धिक उन सबकी आशातना कईं अभिनिवेष - कदाग्रह से करे उसे पारंचीत प्रायश्चित् आता है । [१५] जो स्वलिंग - वेश में रहा हो वैसे कषायदुष्ट या विषयदुष्ट और राग को वश होकर बार-बार प्रकट रूप से राजा की अग्रमहिषी का सेवन करे उसे पारंचित प्रायश्चित् । [१६] थिणद्धि निद्रा के उदय से महादोषवाला, अन्योन्य मैथुन आसक्त, बार-बार पारिचित के उचित्त प्रायश्चित् में प्रवृत्त को पारंचित प्रायश्चित् आता है । [१७] वो पारंचित चार तरह से है । लिंग, क्षेत्र, काल और तप से, उसमें अन्योन्य पड़िसेवन करके और थिणद्धि महादोषवाले को पारंचित प्रायश्चित् । [९८-९९] क्षेत्र से वसति, निवेस, पाडो, वृक्ष, राज्य आदि के प्रवेशस्थान नगर, देश, राज्य में जिस दोष का जिसने सेवन किया हो उसे उस दोष के लिए वहीं पारंचिक करो । [१००] जो जितने काल के लिए जिस दोष का सेवन करे उसे उतने काल के लिए पारंचित् प्रायश्चित् वो पारंचित दो तरह से आशातना और पड़िसेवणा, आशातना पारंचित छ मास से एक साल, पड़िसेवणा प्रायश्चित् एक साल से बारह साल । [१०१] पारंचित प्रायश्चित् सेवन करके महासत्त्वशाली को अकेले जिनकल्पी की तरह और क्षेत्र के बाहर अर्ध योजन रखना और तप के लिए स्थापन करना, आचार्य प्रतिदिन उसका अवलोकन करे । [१०२] अनवस्थाप्य तप और पारंचित तप दोनो प्रायश्चित् अंतिम चौदह पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु स्वामी से विच्छेद हुए है । बाकी के प्रायश्चित् शासन है तब तक रहेंगे । [१०३] इस प्रकार यह जीत कल्प-जीत व्यवहार संक्षेप से, सुविहित साधु की अनुकंपा बुद्धि से कहा । उसी मुताबिक अच्छी तरह से गुण जानकर प्रायश्चित् दान करना । जीतकल्प - छेदसूत्र - ५ - हिन्दी अनुवाद पूर्ण
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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