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________________ दशाश्रुतस्कन्ध- १०/१११ १६७ प्रान्त, तुच्छ, दरिद्र, कृपण या भिक्षुकुल में पुरुष बनुं, जिस से प्रवजित होने के लिए गृहस्थावास छोडना सरल हो जाए । हे आयुष्मान् श्रमणो ! यदि कोई निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी ऐसा निदान करे, उसकी आलोचना-प्रतिक्रमण किए बिना काल करे... ( शेष पूर्ववत् ... यावत्) वह अनगार प्रवज्या तो ले शकता है, लेकिन उसी भव में सिद्ध होकर सर्व दुःखो का अन्त नहीं कर शकता । वह अनगार इर्या समिति... यावत्... ब्रह्मचर्य का पालन भी करे, अनेक बरसो तक श्रमण पर्याय भी पाले, अनशन भी करे... यावत् देवलोक में देव भी होवें । हे आयुष्मान् श्रमणो ! उस निदानशल्य का यह फल है कि उस भव मैं वह सिद्धबुद्ध होकर सब दुःखो का अन्त नहीं कर शकता । (यह है नववां “निदान”) [११२] हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है । यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है... यावत्... तप संयम की साधना करते हुए, वह निर्ग्रन्थ सर्व काम, राग, संग, स्नेह से विरक्त हो जाए, सर्व चारित्र परिवृद्ध हों, तब अनुत्तरज्ञान, अनुत्तर दर्शन यावत् परिनिर्वाण मार्ग में आत्मा को भावित करके अनंत, अनुत्तर आवरण रहित, सम्पूर्ण प्रतिपूर्ण केवलज्ञान... केवल दर्शन उत्पन्न होता है । उस वक्त वो अरहंत, भगवंत, जिन, केवलि, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी होता है, देव मानव की पर्षदा में धर्म देशना के दाता... यावत्... कई साल केवलि पर्याय पालन करके, आयु की अंतिम पल जानकर भक्त प्रत्याख्यान करता है । कई दिन तक आहार त्याग करके अनशन करता है । अन्तिम श्वासोच्छ्वास के समय सिद्ध होकर यावत् सर्व दुःख का अन्त करता है । हे आयुष्मान् श्रमण ! वो निदान रहित कल्याण कारक साधनामय जीवन का यह फल है । कि वो उसी भव में सिद्ध होकर... यावत्... सर्व दुःख का अन्त करते है । [११३] उस वक्त कईं निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी ने श्रमण भगवान् महावीर के पास पूर्वोक्त निदान का वर्णन सुनकर श्रमण भगवान महावीर को वंदन नमस्कार किया । पूर्वकृत् निदान शल्य की आलोचना प्रतिक्रमण करके... यावत्... उचित प्रायश्चित् स्वरूप तप अपनाया । [११४] उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर ने राजगृह नगर के बाहर गुणशील चैत्य में एकत्रित देव - मानव आदि पर्षदा के बीच कई श्रमण- श्रमणी श्रावक-श्राविका को इस तरह आख्यान, प्रज्ञापन और प्ररूपण किया । आर्य ! "आयति स्थान" नाम के अध्ययन का अर्थ हेतु- व्याकरण युक्त और सूत्रार्थ और स्पष्टीकरण युक्त सूत्रार्थ का भगवंतने बार - बार उपदेश किया । उस प्रकार मैं (तुम्हे) कहता हूँ । ३७ दशाश्रुतस्कन्ध - छेदसूत्र - ४ हिन्दी अनुवाद पूर्ण
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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