SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दशाश्रुतस्कन्ध-५/१७ (१) धर्म भावना, जिनसे सभी धर्मोको जान शकते है । (२) संज्ञि - जातिस्मरणज्ञान, जिनसे अपने पूर्व के भव और जाति का स्मरण होता है । १४९ (३) स्वप्न दर्शन का यथार्थ अहेसास । (४) देवदर्शन जिससे दिव्य ऋद्धि-दिव्यकान्ति देवानुभाव देख शकते है । (५) अवधिज्ञान, जिससे लोक को जानते है । (६) अवधिदर्शन, जिससे लोक को देख शकते है । (७) मनः पर्यवज्ञान, जिससे ढाई द्वीप के संज्ञी-पंचेन्द्रिय के मनोगत भाव को जानते है । (८) केवलज्ञान, जिससे सम्पूर्ण लोक- अलोक को जानते है । (९) केवलदर्शन, जिससे सम्पूर्ण लोक- अलोक को देखते है । (१०) केवल मरण, जिससे सर्व दुःख का सर्वथा अभाव होता है | [१८] रागद्वेष रहित निर्मल चित्त को धारण करने से एकाग्रता समान ध्यान उत्पन्न होता है । शंकरहित धर्म में स्थित आत्मा निर्वाण प्राप्त करती है । [१९] इस तरह से चित्त समाधि धारण करनेवाली आत्मा दुसरी बार लोक में उत्पन्न नहीं होती और अपने अपने उत्तम स्थान को जातिस्मरण ज्ञान से जान लेता है । [२०] संवृत्त आत्मा यथातथ्य सपने को देखकर जल्द से सारे संसार समुद्र को पार कर लेता है और तमाम दुःख से छूटकारा पा लेता है । [२१] अंतप्रान्त भोजी, विविक्त, शयन, आसन सेवन करके, अल्पआहार करनेवाले, इन्द्रिय का दमन करनेवाले, षट्काय रक्षक मुनि को देवों के दर्शन होते है । [२२] सर्वकाम भोग से विरक्त, भीम-भैरव, परिषह - उपर्सग सहनेवाले तपस्वी संत को अवधिज्ञान उत्पन्न होता है । [२३] जिसने तप के झरिये अशुभ लेश्या को दूर किया है उसका अवधि दर्शन अि विशुद्ध हो जाता है और उसके द्वारा सर्व उर्ध्व अधो तिर्यक्लोक को देख शकते है । [२४] सुसमाधियुक्त प्रशस्तलेश्यावाले, वितर्करहित भिक्षु और सर्व बँधन से मुक्त आत्मा मन के पर्याय को जानते है ( यानि कि मनः पर्यवज्ञानी होते है ) [२५] जब जीव के समस्त ज्ञानावरण कर्म का क्षय हो तब वो केवली जीन समस्त लोक और अलोक को जानते है । [२६] जब जीव के समस्त दर्शनावरण कर्म का क्षय हो तब वो केवली जिन समस्त लोकालोक को देखते है । [२७] प्रतिमा यानि प्रतिज्ञा के विशुद्ध रूप से आराधना करनेवाले और मोहनिय कर्म का क्षय होने से सुसमाहित आत्मा पूरे लोकालोक को देखता है । [ २८-३०] जिस तरह ताल वृक्ष पर सूई लगाने से समग्र तालवृक्ष नष्ट होता है, जिस तरह सेनापति की मौत के साथ पूरी सेना नष्ट होती है, जिस तरह घुँआ रहित अग्नि ईंधण के अभाव से क्षय होता है, उसी तरह मोहनीय कर्म का (सर्वथा) क्षय होने से बाकी सर्व कर्म का क्षय या विनाश होता है ।
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy