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________________ १३० आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद उपस्थापना न करे तो ऐसा करनेवाले आचार्य आदि को एक साल तक आचार्य पदवी देना न कल्पे । [११२] जो साधु गच्छ को छोड़कर ज्ञान आदि कारण से अन्य गच्छ अपनाकर विचरे तब कोई साधर्मिक साधु देखकर पूछे कि हे आर्य ! किस गच्छ को अंगीकार करके विचरते हो ? तब उस गच्छ के सभी रत्नाधिक साधु के नाम दे । यदि रत्नाधिक पूछे कि किसकी निश्रा में विचरते हो ? तो वो सब बहुश्रुत के नाम दे और कहे कि जिस तरह भगवंत कहेंगे उस तरह उनकी आज्ञा के मुताबिक रहेंगे। [११३] बहुत साधर्मिक एक मांडलीवाले साधु ईकडे विचरना चाहे तो स्थविर को पूछे बिना वैसे विचरना या रहना न कल्पे । स्थविर को पूछे तब भी यदि वो आज्ञा दे तो इकडे विचरना-रहना कल्पे यदि आज्ञा न दे तो न कल्पे । यदि आज्ञा के बिना विचरे तो जितने दिन आज्ञा बिना बिचरे उतने दिन का छेद या परिहार तप प्रायश्चित् आता है । [११४] आज्ञा बिना चलने के लिए प्रवृत्त साधु चार-पांच रात्रि विचरकर स्थविर को देखे तब उनकी आज्ञा बिना जो विचरण किया उसकी आलोचना करे, प्रतिक्रमण करे, पूर्व की आज्ञा लेकर रहे लेकिन हाथ की रेखा सूख जाए उतना काल भी आज्ञा बिना न रहे । [११५] कोइ साधु आज्ञा बिना अन्य गच्छ में जाने के लिए प्रवर्ते, चार या पाँच रात्रि के अलावा आज्ञा बिना रहे फिर स्थविर को देखकर फिर से आलोवे, फिर से प्रतिक्रमण करे, आज्ञा बिना जितने दिन रहे उतने दिन का छेद या परिहार तप प्रायश्चित् आता है । साधु के संयम भाव को टिकाए रखने के लिए दुसरी बार स्थविर की आज्ञा माँगकर रहे । उस साधु को ऐसा कहना कल्पे कि हे भगवंत् ! मुजे दुसरे गच्छ में रहने की आज्ञा दो तो रहूँ । आज्ञा बिना तो दुसरे गच्छ में हाथ की रेखा सूख जाए उतना काल भी रहना न कल्पे, आज्ञा के बाद ही वो काया से स्पर्श करे यानि प्रवृत्ति करे । [११६] अन्य गच्छ में जाने के लिए प्रवृत्त होकर निवर्तेल साधु चार या पाँच रात दुसरे गच्छ में रहे फिर स्थविर को देखकर सत्यरूप से आलोचना-प्रतिक्रमण करे आज्ञा लेकर पूर्व की आज्ञा में रहे लेकिन आज्ञा बिना पलभर भी न रहे । [११७] आज्ञा बिना चलने से निवृत्त होनेवाले साधु चार या पाँच रात गच्छ में रहे फिर स्थविर को देखकर फिर से आलोचना करे - प्रतिक्रमण करे - जितनी रात आज्ञा बिना रहे उतनी रात का छेद या परिहार तप प्रायश्चित् स्थविर उसे दे । साधु संयम के भाव से दुसरी बार स्थविर की आज्ञा लेकर अन्य गच्छ में रहे आदि पूर्ववत् । [११८-११९] दो साधर्मिक साधु इकट्ठे होकर विचरे । उसमें एक शिष्य है और एक रत्नाधिक है । शिष्य को पढ़े हुए साधु का परिवार बड़ा है, रत्नाधिक को ऐसा परिवार छोटा है । वो शिष्य रत्नाधिक के पास आकर उन्हें भिक्षा लाकर दे और विनयादिक सर्व कार्य करे, अब यदि रत्नाधिक का परिवार बड़ा हो और शिष्य का छोटा हो तो रत्नाधिक इच्छा होने पर शिष्य को अंगीकार करे, इच्छा न हो तो अंगीकार न करे, इच्छा हो तो आहार-पानी देकर वैयावच्च करे, इच्छा न हो तो न करे । [१२०-१२२] दो साधु, गणावच्छेदक, आचार्य या उपाध्याय बड़ो को आपस में
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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