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________________ ११८ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद गर्मी में रहना न कल्पे, लेकिन कान से ऊँची छत हो तो कल्पे, यदि खड़ी हुई व्यक्ति सीधे दो हाथ ऊपर करे तब उस हाथ की ऊँचाई से ज्यादा छत नीची हो तो उस उपाश्रय में वर्षा में रहना न कल्पे, यदि छत ऊँची हो तो कल्पे । उद्देशक-४-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण (उद्देशक-५ ) [१४३-१४६] किसी देव या देवी स्त्रीरूप की विकुवर्णाकर साधु को और किसी देवी या देव पुरुष रूप विकुर्वकर साध्वी को आलींगन करे और वो साधु या साध्वी स्पर्श का अनुमोदन करे तो मैथुन सेवन के दोष का हिस्सेदार होता है । और अनुद्घातिक चातुर्मासिक परिहार स्थान प्रायश्चित् का भागी बनता है । [१४७] जो किसी साधु कलह करे और उस कलह को उपशान्त किए बिना दुसरे गण में संमिलित होकर रहना चाहे तो उसे पाँच अहोरात्र का पर्याय छेद करना कल्पे और उस भिक्षु को सर्वथा शान्त-प्रशान्त करके पुनः उसी गण में वापस भेजना योग्य है । या गण की संपति के मुताबिक करना योग्य है । [१४८-१५१] जो साधु सूर्योदय के बाद और सूर्यास्त के पहले भिक्षा चर्या करने के प्रतिज्ञावाले हो वो समर्थ, स्वस्थ और हमेशा प्रतिपूर्ण आहार करते हो या असमर्थ अस्वस्थ और हमेशा प्रतिपूर्ण आहार न करते हो तो ऐसे दोनों को सूर्योदय सूर्यास्त हुआ कि नहीं ऐसा शक हो या भरोसां हो तो भी सूर्योदय के पहले या सूर्यास्त के बाद जो आहार मुँह में, हाथ में या पात्र में हो वो परठवे और मुख आदि की शुद्धि कर ले तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं होता । यदि वो आहार खुद करे या दुसरे साधु को दे तो उसे रात्रि भोज सेवन का दोष और अनुद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान प्रायश्चित् आता है । [१५२] यदि कोई साधु-साध्वी को रात्रि के या संध्या के वक्त पानी और भोजन सहित ऊबाल आए । तो उसे यूँककर वस्त्र आदि से मुँह साफ कर ले तो जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं होता । लेकिन यदि उछाला या उद्गाल को नीगल जाए तो रात्रि भोजन सेवन का दोष लगे और अनुद्घातिक-चातुर्मासिक परिहार स्थान प्रायश्चित् का हिस्सेदार बने । . [१५३-१५४] कोई साधु-साध्वी आहार के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करे और पात्र में दो इन्द्रिय आदि जीव या सचित रज पड़ी हुई देखे तो जब तक उसे नीकालना या शोधन करना मुमकीन हो तो नीकाले या शोधन करे, यदि नीकालना या शोधन करना मुमकीन न हो तो वो आहार खुद न खाए, दुसरों को न दे, लेकिन किसी एकान्त अचित पृथ्वी का पडिलेहण या प्रमार्जन करके वहाँ परठवे, उसी तरह पात्र में उष्ण आहार हो और उसके ऊपर पानी, पानी के कण या बूंद गिरे तो उस आहार का उपभोग करे लेकिन पूर्वगृहीत आहार ठंडा हो और उस पर पानी, पानी के कण बूँद गिरे तो वो आहार खुद न खाए, दुसरों को न दे लेकिन एकान्त अचित्त पृथ्वी का पडिलेहण प्रमार्जन करके वहाँ परठवे । [१५५-१५६] कोई साध्वी रात के या सन्ध्या के वक्त मल-मूत्र का परित्याग करे या शुद्धि करे उस वक्त किसी पशु के पांख के द्वारा साध्वी की किसी एक इन्द्रिय को छू ले, या साध्वी के किसी छिद्र में प्रवेश पा ले और वो स्पर्श या प्रवेश सुखद है (आनन्ददायक है)
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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