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________________ बृहत्कल्प-२/६८ ११३ यदि उसे मिश्रित करे, करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो वो लौकिक और लोकोत्तर मर्यादा का अतिक्रमण करते हुए अनुद्घातिक चातुर्मासिक परिहार तप समान प्रायश्चित् के भागी होते है । [६९-७०] यदि दुसरे घर से आए हुए आहार को सागारिकने अपने घर में ग्रहण किया हो और उसे दे तो साधु-साध्वी को लेना न कल्पे, उसका स्वीकार न किया हो और फिर दे तो कल्पे । ७१-७२] सागरिक के घर से दुसरे घर में ले गए आहार का यदि गृहस्वामी ने स्वीकार न किया हो और कोई दे तो साधु को लेना न कल्पे, यदि गृहस्वामी ने स्वीकार कर लिया हो और फिर कोई दे तो लेना कल्पे । [७३-७४] (सागारिक एवं अन्य लोगों के लिए संयुक्त निष्पन्न भोजन में से) सागारिक का हिस्सा निश्चित्-पृथक निर्धारित अलग न नीकाला हो और उसमें से कोई दे तो साधु-साध्वी को लेना न कल्पे, लेकिन यदि सागारिक का हिस्सा अलग किया गया हो और कोई दे तब लेना कल्पे । [७५-७८] सागारिक को अपने पूज्यपुरुष या महेमान को आश्रित करके जो आहारवस्त्र कम्बल आदि उपकरण बनाए हो या देने के लिए रखे हो वो पूज्यजन या अतिथि को देने के बाद जो कुछ बचा हो वो सागारिक को परत करने के लायक हो या न हो, बचे हुए हिस्से में से सागारिक या उसके परिवारजन कुछ दे तो साधु-साध्वी को लेना न कल्पे, वो पूज्य पुरुष या अतिथि दे तो भी लेना न कल्पे । [७९] साधु-साध्वी को पाँच तरह के वस्त्र रखना या इस्तेमाल करना कल्पे । जांगमिकगमनागमन करते भेड़-बकरी आदि के बाल में से बने, भांगिक अलसी आदि के छिलके से बने, सानक शण के बने, पीतक-कपास के बने, तिरिडपट्ट-तिरिड़वृक्ष के वल्कल से बने वस्त्र । [८०] साधु-साध्वी को पाँच तरह के रजोहरण रखना या इस्तेमाल करना कल्पे । ऊनी, ऊँट के बाल का, शण का, वच्चक नाम के घास का, मुंज घास फूटकर उसका कर्कश हिस्सा दूर करके बनाया हुआ। उद्देशक-२-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण ( उद्देशक-३) [८१-८२] साधु को साध्वी के और साध्वी को साधु के उपाश्रय में रहना, बैठना, सोना, निद्रा लेना, सो जाना, अशन आदि आहार करना, मल-मूत्र, कफ-नाक के मैल का त्याग करना, स्वाध्याय, ध्यान या कार्योत्सर्ग करना न कल्पे । [८३-८४] साध्वी को (शयन-आसन के लिए) रोमवाला चमड़ा लेना न कल्पे, साधु को कल्पे, लेकिन वो इस्तेमाल किया गया या नया न हो, वापस करने का हो, केवल एक रात के लिए लाया गया हो लेकिन कईं रात के लिए उपयोग न करना हो तो कल्पे। [८५-८८] साधु-साध्वी को अखंड चमडा, वस्त्र या पूरा कपड़ा पास रखना या उपयोग करना न कल्पे, लेकिन चर्मखंड़, टुकड़े किए गए कपड़े में से नाप के अनुसार फाडकर रखे हुए वस्त्र रखना और उपभोग करना कल्पे । 100
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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