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________________ जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति २/४१ 1 [४२] उन पन्द्रह कुलकरों में से सुमति, प्रतिश्रुति, सीमंकर, सीमन्धर तथा क्षेमंकरइन पांच कुलकरों की हकार नामक दंड-नीति होती है । वे मनुष्य हकार-दंड से अभिहत होकर लज्जित, विलज्जित, व्यर्द्ध, भीतियुक्त, निःशब्द तथा विनयावनत हो जाते हैं । उनमें से क्षेमंधर, विमलवाहन, चक्षुष्मान्, यशस्वान् तथा अभिचन्द्र - इन पांच कुलकरों की मकार दण्डनीति होती है । वे मनुष्य मकार रूप दण्ड से लज्जित इत्यादि हो जाते हैं । उनमें से चन्द्राभ, प्रसेनजित्, मरुदेव, नाभि तथा ऋषभ - इन पाँच कुलकरों की धिक्कार नीति होती है । वे मनुष्य 'धिक्कार' - रूप दण्ड से अभिहत होकर लज्जित हो जाते हैं । [४३] नाभि कुलकर के, उनकी भार्या मरुदेवी की कोख से उस समय ऋषभ नामक अर्हत्, कौशलिक, प्रथम राजा, प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर चतुर्दिग्व्याप्त अथवा चार गतियों का अन्त करने में सक्षम धर्म साम्राज्य के प्रथम चक्रवर्ती उत्पन्न हुए । कौशलिक अर्हत् ऋषभ ने बीस लाख पूर्व कुमार-अवस्था में व्यतीत किये । तिरेसठ लाख पूर्व महाराजावस्था में रहते हुए उन्होंने लेखन से लेकर पक्षियों की बोली तक का जिनमें पुरुषों की बहत्तर कलाओं, स्त्रियों के चौसठ गुणों तथा सौ प्रकार के कार्मिक शिल्पविज्ञान का समावेश है, प्रजा के हित के लिए उपदेश किया । अपने सौ पुत्रों को सौ राज्यों में अभिषिक्त किया । वेतियासी लाख पूर्व गृहस्थ वास में रहे । ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास - चैत्र मास में प्रथम पक्ष - कृष्ण पक्ष में नवमी तिथि के उत्तरार्ध में - मध्याह्न के पश्चात् रजत, स्वर्ण, कोश, कोष्ठागार, बल, सेना, वाहन, पुर, अन्तःपुर, धन, स्वर्ण, रत्न, मणि, मोती, शंख, शिला, राजपट्ट आदि, प्रवाल, पद्मराग आदि लोक के सारभूत पदार्थों का परित्याग कर, उनसे ममत्व भाग हटाकर अपने दायिक, जनों में बंटवारा कर वे सुदर्शना नामक शिबिका में बैठे । देवों, मनुष्यों तथा असुरों की परिषद् उनके साथसाथ चली । शांखिक, चाक्रिक, लांगलिक, मुखमांगलिक, पुष्पमाणव, भाट, चारण आदि स्तुतिगायक, वर्धमानक, आख्यायक, लंख, मंख, घाण्टिक, पीछे-पीछे चले । ३१ वे इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोरम, उदार, दष्टि से वैशद्ययुक्त, कल्याण, शिव, धन्य, मांगल्य, सश्रीक, हृदयगमनीय, सुबोध, हृदय प्रह्लादनीय, कर्ण-मननिर्वृतिकार, अपुनरुक्त, अर्थशतिक, वाणी द्वारा वे निरन्तर उनका इस प्रकार अभिनन्दन तथा अभिस्तवन करते थे नंद ! भद्र ! प्रभुवर ! आपकी जय हो, आपकी जय हो । आप धर्म के प्रभाव से परिषहों एवं उपसर्गों से अभीत रहें, भय, भैरव का सहिष्णुतापूर्वक सामना करने में सक्षम रहें । आपकी धर्मसाधना निर्विघ्न हो । उन आकुल पौरजनों के शब्दों से आकाश आपूर्ण था । इस स्थिति में भगवान् ऋषभ राजधानी के बीचोंबीच होते हुए निकले । सहस्रों नर-नारी अपने नेत्रों से बार-बार उनके दर्शन कर रहे थे, यावत् वे घरों की हजारों पंक्तियों को लांघते हुए आगे बढ़े । सिद्धार्थवन, जहां वे गमनोद्यत थे, की ओर जाने वाले राजमार्ग पर जल का छिड़काव कराया हुआ था । वह झाड़-बुहारकर स्वच्छ कराया हुआ था, सुरभित जल से सिक्त था, शुद्ध था, वह स्थान-स्थान पर पुष्पों से सजाया गया था, घोड़ों, हाथियों तथा रथों के समूह, पदातियों के पदाघात से - जमीन पर जमी हुई धूल धीरे-धीरे ऊपर की ओर उड़ रही थी । इस प्रकार चलते हुए वे जहाँ सिद्धार्थवन उद्यान था, जहाँ उत्तम अशोक वृक्ष था, वहां आये । उस उत्तम वृक्ष के नीचे शिबिका को रखवाया, नीचे उतरकर स्वयं अपने गहने उतारे । स्वयं
SR No.009787
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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