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________________ महाप्रत्याख्यान - २९ मिथ्यादर्शन शल्य, माया शल्य और नियाण शल्य का उद्धरण करना चाहिए । [३०] जिस तरह बोज का वहन करनेवाला मानव बोज उतारकर हलका होता है वैसे पाप करनेवाला मानव आलोचना और निन्दा करके बहोत हलका होता है । १८७ [३१] मार्ग को जाननेवाला गुरु उसका जो प्रायश्चित कहता है उस अनवस्था के ( अयोग्य) अवसर के डरवाले मानव को वैसे ही अनुसरण करना चाहिए [३२] उसके लिए जो कुछ भी अकार्य किया हो उन सबको छिपाए बिना दस दोष रहित जैसे हुआ हो वैसे ही कहना चाहिए । [३३] सभी जीव का आरम्भ, सर्व असत्यवचन, सर्व अदत्तादान, सर्व मैथुन और सर्व परिग्रह का मैं त्याग करता हूँ । [३४] सर्व अशन और पानादिक चतुर्विधआहार और जो (बाह्य पात्रादि) उपधि और कषायादि अभ्यंतर उपधि उन सबको त्रिविधे वोसिराता हूँ । [३५] जंगल में, दुष्काल में या बड़ी बीमारी होने से जो व्रत का पालन किया है और न तूटा हो वह शुद्धव्रत पालन समजना चाहिए । [३६] राग करके, द्वेष करके या फिर परिणाम से जो - पच्चक्खाण दुषित न किया हो वह सचमुच भाव विशुद्ध पच्चक्खाण जानना चाहिए । [३७] इस अनन्त संसार के लिए नई नई माँ का दूध जीव ने पीया है वो सागर के पानी से भी ज्यादा होता है । [३८] उन-उन जाति में बार-बार मैंने बहुत रुदन किया उस नेत्र के आँसू का पानी भी समुद्र के पानी से ज्यादा होता है ऐसा समझना । [३९] ऐसा कोई भी बाल के अग्र भाग जितना प्रदेश नहीं है कि जहाँ संसार में भ्रमण करनेवाला जीव पैदा नहीं हुआ और मरा नहीं । [४०] लोक के लिए वाकईं में चोराशी लाख जीवयोनि है । उसमें से हर एक योनि में जीव अनन्त बार उत्पन्न हुआ है । [४१] उर्ध्वलोक के लिए, अधोलोक के लिए और तिर्यग्लोक के लिए मैने कई बाल मरण प्राप्त किये है इस लिए अब उन मरण को याद करते हुए मैं अब पंड़ित मरण मरूँगा । [४२] मेरी माता, मेरा पिता, मेरा भाई, मेरी बहन, मेरा पुत्र, मेरी पुत्री, उन सबको याद करते हुए (ममत्व छोडके) में पंड़ित मौत मरूँगा । [४३] संसार में रहे कईं योनि में निवास करनेवाले माता, पिता और बन्धु द्वारा पूरा लोक भरा है, वो तेरा त्राण और शरण नहीं है । [४४] जीव अकेले कर्म करता है, और अकेले ही बूरे किए हुए पाप कर्म के फल को भुगतता है, तथा अकेले ही इस जरा मरणवाले चतुर्गतिसमान गहन वन में भ्रमण करता है । [४५] नरक में जन्म और मरण ये दोनो ही उद्वेग करवाने वाले है, तथा नरक में कईं वेदनाएँ है; [४६] तिर्यंच की गति में भी उद्वेग को करनेवाले जन्म और मरण है, या फिर कईं वेदना होती है;
SR No.009787
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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