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________________ जीवाजीवाभिगम-३ / द्वीप./१७८ ९७ में भी द्वार, मुखमण्डप आदि सब वर्णन, भूमिभाग, यावत् मणियों का स्पर्श आदि कह लेना । उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के मध्य में एक बड़ी मणिपीठिका है । वह एक योजन लम्बीचौड़ी और आधा योजन मोटी है, सर्वरत्नमय और स्वच्छ है । उस मणिपीठिका के ऊपर एक बड़ा देवशयनीय है । उस उपपातसभा के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजा और छत्रातिछत्र हैं जो उत्तम आकार के हैं और रत्नों से सुशोभित हैं । उस के उत्तर-पूर्व में एक बड़ा सरोवर है । वह साढे बारह योजन लम्बा, छह योजन एक कोस चौड़ा और दस योजन ऊँड़ा है । वह स्वच्छ है, श्लक्ष्ण है आदि नन्दापुष्करिणीवत् वर्णन करना । उस सरोवर के उत्तर-पूर्व में एक बड़ी अभिषेक भा है । सुधर्मासभा की तरह उसका पूरा वर्णन कर लेना । उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्यभाग में एक बड़ी मणिपीठिका है । वह एक योजन लम्बी-चौड़ी और आधा योजन मोटी है, सर्व मणिमय और स्वच्छ है । उस मणिपीठिका के ऊपर एक बड़ा सिंहासन है । यहाँ सिंहासन का वर्णन करना, परिवार का कथन नहीं करना । उस सिंहासन पर विजयदेव के अभिषेक के योग्य सामग्री रखी हुई है । अभिषेकसभा के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएँ, छत्रातिछत्र कहने चाहिए, जो उत्तम आकार के और सोलह रत्नों से उपशोभित हैं । उस अभिषेकसभा के उत्तरपूर्व में एक विशाल अलंकारसभा है । मणिपीठिका का वर्णन भी अभिषेकसभा की तरह जानना । उस मणिपीठिका पर सपरिवार सिंहासन है । उस सिंहासन पर विजयदेव के अलंकार के योग्य बहुत-सी सामग्री रखी हुई है । उस अलंकारसभा के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र हैं जो उत्तम आकार के और रत्नों से सुशोभित हैं । उस आलंकारिक सभा के उत्तरपूर्व में एक बड़ी व्यवसायसभा है । उस सिंहासन पर विजयदेव का पुस्तकरत्न रखा हुआ है । वह रिष्टरत्न की उसकी कबका हैं, चांदी के उसके पन्ने हैं, रिष्टरत्नों के अक्षर हैं, तपनीय स्वर्ण का डोरा है, नानामणियों की उस डोरे की गांट हैं, वैडूर्यरत्न का मषिपात्र है, तपनीय स्वर्ण की उस दावात की सांकल हैं, रिष्टरत्न का ढक्कन है, रिष्टरत्न की स्याही है, वज्ररत्न की लेखनी है । वह ग्रन्थ धार्मिकशास्त्र है । उस व्यवसायसभा के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र है। जो उत्तम आकार के हैं यावत् रत्नों से शोभित हैं । उस सभा के उत्तर-पूर्व में एक विशाल बलिपीठ है । वह दो योजन लम्बा-चौड़ा और एक योजन मोटा है । वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है । उस बलिपीठ के उत्तरपूर्व में एक बड़ी नन्दापुष्करिणी है । [१७९] उस काल और उस समय में विजयदेव विजया राजधानी की उपपातसभा में देवशयनीय में देवदूष्य के अन्दर अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण शरीर में विजयदेव के रूप में उत्पन्न हुआ । तब वह उत्पत्ति के अनन्तर पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पूर्ण हुआ । वे पांच पर्याप्तियां इस प्रकार हैं-आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रिपर्याप्ति, आनप्राणपर्याप्ति और भाषामनपर्याप्ति । तदनन्तर विजयदेव को इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन, प्रार्थित और मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ- मेरे लिए पूर्व में क्या श्रेयकर है, पश्चात् क्या श्रेयस्कर है, मुझे पहले क्या करना चाहिए, पश्चात् क्या करना चाहिए, मेरे लि पहले और बाद में क्या हितकारी, सुखकारी, कल्याणकारी, निःश्रेयस्कारी और परलोक में साथ जाने वाला होगा । वह इस प्रकार चिन्तन करता है । तदनन्तर उस की सामानिक पर्षदा के देव विजयदेव की ओर आते हैं और विजयदेव 77
SR No.009785
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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