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________________ जीवाजीवाभिगम-३/द्वीप./१७५ ९५ में बहुत से चांदी के सीके हैं । उन रजतमय सींकों में बहुत-सी वैडूयहरत्न की धूपघटिकाएँ हैं । वे धूपघटिकाएँ काले अगर, श्रेष्ठ कुंदुरुक्क और लोभान के धूप की नाक और मन को तृप्ति देनेवाली सुगन्ध से आसपास के क्षेत्र को भरती हुई स्थित हैं । उस सुधर्मासभा में बहुसमरमणीय भूमिभाग है । यावत् वह भूमिभाग तपनीय स्वर्ण का है, स्वच्छ है और प्रतिरूप है । [१७६] उस बहसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्यभाग में एक मणिपीठिका है । वह मणिपीठिका दो योजन लम्बी-चौड़ी, एक योजन मोटी और सर्वमणिमय है । उस के ऊपर माणवक चैत्यस्तम्भ है । वह साढे सात योजन ऊँचा, आधा कोस ऊँडा और आधा कोस चौड़ा है । उसकी छह कोटियाँ हैं, छह कोण हैं और छह भाग हैं, वह वज्र का है, गोल है और सुन्दर आकृतिवाला है, यावत् वह प्रासादीय है । उस चैत्यस्तम्भ के ऊपर छह कोस ऊपर और छह कोस नीचे छोड़ कर बीच के साढे चार योजन में बहुत से सोने-चांदी के फलक हैं। उन फलकों में बहुत से वज्रमय नागदन्तक हैं । उन नागदन्तकों में बहुत से चांदी के छीके हैं । उन छींकों में बहुत-से वज्रमय गोल समुद्गक हैं । उन वर्तुल समुद्गकों में बहुत-सी जिन-अस्थियाँ हैं । वे विजयदेव और अन्य बहुत से यानव्यन्तर देव और देवियों के लिए अर्चनीय, वन्दनीय, पूजनीय, सत्कारयोग्य, सन्मानयोग्य, कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप, चैत्यरूप और पर्युपासनायोग्य हैं । उस चैत्यस्तम्भ के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र हैं । उस माणवक चैत्यस्तम्भ के पूर्व में एक बड़ी मणिपीठिका है । वह दो योजन लम्बीचौड़ी, एक योजन मोटी और सर्वमणिमय है यावत् प्रतिरूप है । उस मणिपीठिका के ऊपर एक बड़ी सिंहासन है । उस माणवक चैत्यस्तम्भ के पश्चिम में एक बड़ी मणिपीठिका है जो एक योजन लम्बी-चौड़ी और आधा योजन मोटी है, जो सर्वमणिमय है और स्वच्छ है । उस मणिपीठिका के ऊपर एक बड़ा देवशयनीय है । नाना मणियों के उसके प्रतिपाद हैं, उसके मूल पाये सोने के हैं, नाना मणियों के पायों के ऊपरी भाग हैं, जम्बूनद स्वर्ण की उसकी ईसें हैं, वज्रमय सन्धियाँ हैं, नाना मणियों से वह बुना हुआ है, चांदी की गादी है, लोहिताक्ष रत्नों के तकिये हैं और तपनीय स्वर्ण का गलमसूरिया है । वह देवशयनीय दोनों ओर तकियोंवाला है, शरीरप्रमाण तकियों वाला हैं, वह दोनों तरफ से उन्नत और मध्य में नत और गहरा है, गंगा नदी की बालुका समान वह शय्या उस पर सोते ही नीचे बैठ जाती है, उस पर बेल-बूटे निकाला हुआ सूती वस्त्र बिछा हुआ है, उस पर रजस्त्राण है, लाल वस्त्र से वह ढका हुआ है, सुरम्य है, मृगचर्म, रुई, बूर वनस्पति और मक्खन के समान उसका मूदुल स्पर्श है, वह प्रासादीय यावत् प्रतिरूप है । उस देवशयनीय के उत्तर-पूर्व में एक बड़ी मणिपीठिका है । वह एक योजन की लम्बी-चौड़ी और आधे योजन की मोटी तथा सर्व मणिमय यावत् स्वच्छ है । उस मणिपीठिका के ऊपर एक छोटा महेन्द्रध्वज है जो साढे सात योजन ऊँचा, आधा कोस ऊँडा और आधा कोस चौड़ा है । वह वैडूर्यरत्न का है, गोल है और सुन्दर आकार का है, यावत् आठ-आठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र हैं । उस छोटे महेन्द्रध्वज के पश्चिम में विजयदेव का चौपाल नामक शस्त्रागार है । वहाँ विजय देव के परिघरत्न आदि रखे हुए हैं । वे शस्त्र उज्ज्वल, अति तेज और तीखी धारवाले हैं । वे प्रासादीय यावत् प्रतिरूप हैं । उस सुधर्मासभा के ऊपर बहुत
SR No.009785
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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